________________
२४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० १५ / प्र० २
अनुवाद- मुनियों और आर्यिकाओं को अस्वाध्यायकाल में सूत्रग्रन्थ नहीं पढ़ने चाहिए, ४१ (अपितु ) आराधनानिर्युक्ति, मरणविभक्ति, संग्रह, स्तुति, प्रत्याख्यान, आवश्यक और धर्मकथा अथवा ऐसे ही अन्य ग्रन्थ पढ़ने चाहिए। "
44
ये सभी दिगम्बरग्रन्थ हैं, कोई भी श्वेताम्बरीय नहीं है । यह निम्नलिखित कारणों से सिद्ध होता है
१. यदि मूलाचार श्वेताम्बर या यापनीय परम्परा का ग्रन्थ होता, तो यह कहना उचित था कि उसमें निर्दिष्ट उपर्युक्त ग्रन्थ श्वेताम्बर - परम्परा के हैं, कुन्दकुन्द की परम्परा (दिगम्बरपरम्परा) के नहीं । किन्तु पूर्व में सप्रमाण दर्शाया जा चुका है कि मूलाचार में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति आदि मान्यताओं को अमान्य किया गया है, जो श्वेताम्बर और यापनीय मतों की आधारभूत हैं, अतः वह न श्वेताम्बर - परम्परा का ग्रन्थ है, न यापनीय - परम्परा का, अपितु शुद्ध कुन्दकुन्द की परम्परा का है । इसलिए उपर्युक्त गाथा में जिन आराधनानिर्युक्ति आदि ग्रन्थों का वर्णन है, वे किसी भी तरह श्वेताम्बरग्रन्थ नहीं हो सकते, अतः सर्वथा दिगम्बरग्रन्थ हैं।
२. मूलाचार में आवश्यकनिर्युक्ति नामक ग्रन्थ का एक अध्याय के रूप में वर्णन किया गया है, ४२ जिसमें सामायिकनिर्युक्ति, ४३ चतुर्विंशतिस्तवनिर्युक्ति, वन्दनानिर्युक्ति, प्रतिक्रमणनिर्युक्ति, प्रत्याख्याननिर्युक्ति और कायोत्सर्गनिर्युक्ति, ४ ये निर्युक्तियाँ वर्णित हैं। सम्पूर्ण आवश्यकनिर्युक्ति में श्वेताम्बरत्व को सूचित करनेवाला एक भी लक्षण नहीं है। इसके विपरीत ऐसे लक्षण हैं, जिनसे दिगम्बरत्व सूचित होता है, जैसे सामायिकनिर्युक्ति में पिच्छी के लिए श्वेताम्बरीय शब्द रजोहरण ४५ का प्रयोग न कर दिगम्बरीय शब्द प्रतिलेखन ४६ का प्रयोग किया गया है तथा प्रत्याख्याननियुक्ति में अनशनतप
४१. तं पढिदुमसज्झाये णो कप्पदि विरद इत्थिवग्गस्स ।
एत्तो अण्णो गंथो कप्पदि पढिदुं असज्झाए ॥ २७८ ॥ मूलाचार / पूर्वार्ध ।
४२. आवासयणिज्जत्ती वोच्छामि जहाकमं समासेण ।
आयरियपरंपराए जहागदा
४३. सामाइयणिज्जत्ती वोच्छामि जहाकमं आयरियपरंपराए जहागदं ४४. मूलाचार / पूर्वार्ध / गा. ५३९, ५७६, ६१३, ६४९ । ४५. आयाणे निक्खेवे ठाणनिसीअण-तु अट्ठसंकोए ।
पुव्विं पमज्जणट्ठा लिंगट्ठा लिंगट्ठा चेव रयहरणं ॥
Jain Education International
आणुपुव्वी ॥ ५०३ ॥ मूलाचार / पूर्वार्ध । समासेण ।
४६. क—- ठाणे चंकमणादाणे णिक्खेवे
आणुपुव्वीए ॥ ५१७॥ मूलाचार / पूर्वार्ध ।
पंचवस्तुक / द्वार ३ / अभिधानराजेन्द्रकोष ६ / ४७५/ सयणआसणपयत्ते।
पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ लिंगं च होइ सपक्खे ॥ ९९६ ॥ मूलाचार / उत्तरार्ध ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org