SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 723
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ० २० / प्र० १ वराङ्गचरित / ६६७ यह कथन यापनीयमत के विरुद्ध है । यह भी इस ग्रन्थ के यापनीयाचार्यकृत न होने का एक प्रमाण है। अन्यलिंगिमुक्ति-निषेध यापनीयमत में जैनेतर मतों में प्रतिपादित मोक्षमार्ग से भी मुक्ति होना स्वीकार किया गया है। किन्तु वरांगचरित में केवल जिनप्रणीत तत्त्वों के श्रद्धान, ज्ञान एवं अनुचरण को ही मोक्षमार्ग बतलाया गया है। अन्य मतवालों को अन्यतीर्थ ३ शब्द से अभिहित किया गया है और कहा गया है अश्रद्दधाना ये धर्मं जिनप्रोक्तं कदाचन । अलब्धतत्त्वविज्ञाना अनाद्यनिधनाः सर्वे मग्नाः संसारसागरे । अभव्यास्ते विनिर्दिष्टा अन्धपाषाणसन्निभाः ॥ २६ / ९ ॥ मिथ्याज्ञानपरायणाः ॥ २६/८ ॥ अनुवाद - " जो जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट धर्म में विश्वास नहीं करते, वे तत्त्वज्ञान से रहित और मिथ्याज्ञान से ग्रस्त होने के कारण अनादि - अनन्त संसारसागर में डूबे रहते हैं। उन्हें अन्धपाषाण के समान अभव्य कहा गया है ।" यह भी वरांगचरित के यापनीयग्रन्थ न होने का एक प्रमाण है । ६ महाव्रतों की भावनाएँ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य से भिन्न दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाओं का वर्णन करनेवाले पाँच सूत्र हैं, किन्तु श्वेताम्बरीय तत्त्वार्थाधिगमसूत्र में उनका अभाव है। यद्यपि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में उनका उल्लेख है, तथापि वे दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित भावनाओं से कुछ भिन्न हैं । वरांगचरित में दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित भावनाओं अनुसरण किया गया है । उदाहरणार्थ का अहिंसामहाव्रत की पाँच भावनाओं में जो वचनगुप्ति है, उसके स्थान पर तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (७ / ३ / पृ. ३२० ) में एषणासमिति का उल्लेख है । किन्तु वरांगचरित में दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार वचनगुप्ति ही स्वीकार की गई है। ३. अर्हन्तमिदं पुण्यं स्याद्वादेन विभूषितम् । अन्यतीर्थैरनालीढं वक्ष्ये द्रव्यानुयोजनम् ॥ २६ / १ ॥ वरांगचरित | ४. ईयासमादाननिसर्गयत्नो वाणीमनोगुप्तिरपि प्रकाशे । अनिन्द्यभुक्तिः प्रथमव्रतस्य ता भावनाः पञ्च मुनिप्रणीताः ॥ वरांगचरित ३१ / ७६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy