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________________ अ० १८ / प्र०७ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६२१ दिगम्बरपक्ष उपर्युक्त श्वेताम्बरचूर्णियों में दिगम्बराचार्य अकलंकदेवकृत 'सिद्धिविनिश्चय' का उल्लेख है। यह इससे स्पष्ट है कि उसका उल्लेख सन्मतिसूत्र जैसे समान विषयवाले ग्रन्थ के साथ किया गया है। यदि उसे शिवार्यकृत 'सिद्धिविनिश्चय' का उल्लेख भी माना जाय, तो शिवार्य भी दिगम्बर ही थे, यह 'भगवती-आराधना' नामक त्रयोदश अध्याय में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। अतः जिस प्रकार श्वेताम्बरग्रन्थों में सिद्धिविनिश्चय का आदरपूर्वक उल्लेख होने से अकलंकदेव या शिवार्य यापनीय सिद्ध नहीं होते, वैसे ही उनमें 'सन्मतिसूत्र' का आदरपूर्वक निर्देश होने से सिद्धसेन भी यापनीय सिद्ध नहीं होते। सिद्धिविनिश्चय ग्रन्थ के दिगम्बरग्रन्थ होने से स्पष्ट है कि बतलाया गया हेतु असत्य है। यापनीयपक्ष डॉ० पटोरिया-केवली के दर्शनज्ञानोपयोग के विषय में क्रमवाद का खण्डन और अभेदवाद का प्रतिपादन करते समय सन्मतिसूत्रकार क्रमवादी आचार्यों पर आक्षेप करते हुए कहते हैं-"जो लोग आगम का अवलम्बन कर कहते हैं कि जिस समय केवली जानते हैं, उस समय देखते नहीं हैं, वे ऐसा तीर्थंकरों की आशातना ( अवमानना) के डर से कहते हैं।"१५७ किन्तु तीर्थंकरों ने स्वयं कहा है कि केवली के केवलज्ञान और दर्शन सादि और अनन्त हैं। अतः जब दोनों उपयोग अनन्तकाल तक एक साथ रहते हैं, तब उनमें क्रम कैसे हो सकता है? इस प्रकार तीर्थंकर के वचन से ही क्रमवाद का खण्डन हो जाता है। अतः क्रमवाद को न मानने से तीर्थंकरों की आशातना नहीं होती।५८ यहाँ विचारणीय है कि यदि ग्रन्थकार दिगम्बर होते, तो उन्हें क्रमवाद का खण्डन करते समय आचार्यों को सूत्रावलम्बी तथा तीर्थङ्कराशातनाभीरु कहने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि वे क्रमवाद के समर्थक आगमों को नहीं मानते। संकलित आगमग्रन्थों को प्रमाण माननेवाले के लिए ही किसी सूत्र को न मानना तीर्थंकराशातनाभीरु कहना, यही व्यक्त करता है कि वे भी सूत्रों को प्रामाणिक माननेवाली परम्परा के हैं।"१५९ १५७. क- केई भणंति जइया जाणइ तइया न पासइ जिणो त्ति। सुत्तमवलंबमाणा तित्थयरासायणाभीरू॥ २/४॥ आसायणा = आशातना (विपरीतवर्तन, अपमान, तिरस्कार)/ 'पाइअ-सह-महण्णवो'। पृ.१२६। १५८. सुत्तम्मि चेव साई-अपज्जवसियं ति केवलं वुत्तं। सुत्तासायणाभीरुहिं तं च दट्ठव्वयं होई ॥ २/७॥ सन्मतिसूत्र । १५९. यापनीय और उनका साहित्य / पृष्ठ १४४ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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