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अ० १६ / प्र० १
तत्त्वार्थसूत्र / ३१९
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के आधार से मतिज्ञान, स्मृतिज्ञान आदि को स्वतन्त्र ज्ञान मानते हैं । सिद्धसेनगणी ने भी तत्त्वार्थभाष्य के आधार से इनको स्वतन्त्र ज्ञान मानकर उनकी व्याख्या की है। यह कहना कि सामान्य - मतिज्ञान व्यापक है और विशेष मतिज्ञान, स्मृतिज्ञान आदि उसके व्याप्य हैं, कुछ सयुक्तिक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि मतिज्ञान वर्तमान अर्थ को विषय करता है। इस तथ्य को जब स्वयं तत्त्वार्थभाष्यकार स्वीकार करते हैं, तब मति, स्मृति आदि नाम मतिज्ञान के पर्यायवाची ही हो सकते हैं, भिन्न-भिन्न ज्ञान नहीं । तथा दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के आगमों में इन्हें मतिज्ञान का पर्यायवाची ही कहा है। स्पष्ट है कि यहाँ पर भी तत्त्वार्थभाष्यकार की व्याख्या मूल सूत्र का अनुसरण नहीं करती।" (स.सि./ प्रस्ता. / पृ. ६७-६८) ।
२.११. शब्दादि नय
"तत्त्वार्थभाष्यकार ने दसवें अध्याय के 'क्षेत्रकालगति' इत्यादि सूत्र की व्याख्या करते हुए शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ('शब्दादयश्च त्रयः '), इन तीन को मूलनय मान लिया है, जब कि वे ही प्रथम अध्याय में उस सूत्रपाठ को स्वीकार करते हैं, जिसमें मूलनयों में केवल एक शब्दनय स्वीकार किया गया है।" (स.सि./ प्रस्ता. / पृ.६८)। यह परस्परविरुद्ध है तथा सूत्रकार के मत से भी भिन्नता प्रदर्शित करता है।
२. १२. चरमदेहोत्तम पुरुष
"औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषो ऽनपवर्त्यायुषः " (त.सू. /२/५३) इस दिगम्बरमान्य सूत्रपाठ में चरमोत्तमंदेह पद है। श्वेताम्बरमान्य सूत्रपाठ में इसके स्थान पर चरमदेहोत्तमपुरुष पाठ मिलता है। पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं-" तत्त्वार्थभाष्यकार ने प्रारम्भ में इस पद को मानकर ही उसकी व्याख्या की है। किन्तु बाद में वे उत्तमपुरुष पद का त्याग कर देते हैं और मात्र चरमदेह पद को स्वीकार कर उसका उपसंहार करते हैं। इससे विदित होता है कि तत्त्वार्थभाष्यकार को इस सूत्र के कुछ हेरफेर के साथ दो पाठ मिले होंगे, जिनमें से एक पाठ को उन्होंने मुख्य मानकर उसका प्रथम व्याख्यान किया । किन्तु उसको स्वीकार करने पर जो आपत्ति आती है, उसे देखकर उपसंहार के समय उन्होंने दूसरे पाठ को स्वीकार कर लिया । स्पष्ट है कि इससे तत्त्वार्थभाष्यकार ही तत्त्वार्थसूत्रकार हैं, इस मान्यता को बड़ा धक्का लगता है । " ( स. सि. / प्रस्ता. / पृ. ६८ ) ।
१०२. " मतिज्ञानं स्मृतिज्ञानं संज्ञाज्ञानं चिन्ताज्ञानम् आभिनिबोधिकज्ञानमित्यनर्थान्तरम् ।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/ १ / १३ ।
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