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________________ ३२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र० १ ये चार अन्तर्विरोध सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री ने निर्दिष्ट किये हैं । सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने सूत्र और भाष्य में निम्नलिखित विसंगतियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है २.१३. प्राणापान “शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम्" (त. सू. ५ / १९) इस सूत्र के भाष्य में कहा गया है—'प्राणापानौ च नामकर्मणि व्याख्यातौ' अर्थात् नामकर्म के प्रकरण में प्राण और अपान का व्याख्यान किया जा चुका है। किन्तु नामकर्म का प्रकरण आठवें अध्याय में हैं। अतः व्याख्यातौ यह भूतकालीन क्रिया असंगत है। व्याख्यास्येते होना चाहिए था। सिद्धसेन गणी ने भी इस असंगति की चर्चा की है, किन्तु उन्होंने इसका यह समाधान किया है कि भविष्यत् काल के द्योतन के लिए भूतकालिक और वर्तमानकालिक प्रत्ययों का भी प्रयोग होता है । किन्तु भाष्यकार ने इस तरह के प्रयोग अन्यत्र नहीं किये हैं, इसलिए सिद्धसेन गणी का समाधान समाधानकारक नहीं है । अतः यही सिद्ध होता है कि भाष्यकार ने सूत्रों की रचना नहीं की है, इसीलिए सूत्र और भाष्य में यह असंगति है । ( कैलाशचन्द्र शास्त्री / जै. सा. इ. / भा. २ / २४१-४२) । २.१४. घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः १०३ "रत्नशर्कराबालुका" (त.सू. / श्वे. /३/१) इत्यादि सूत्र में आये घनाम्बुवांताकाशप्रतिष्ठाः पद का अर्थ करते हुए भाष्यकार ने लिखा है “अम्बुवाताका प्रतिष्ठा इि सिद्धे घनग्रहणं क्रियते तेनायमर्थः प्रतीयते- ।" ( स्वोपज्ञभाष्य / तत्त्वार्थाधिगमसूत्र / भाग १ / जी.च. साकरचंद जवेरी, मुंबई / अध्याय ३ / सूत्र १ / पृ. २३०) । 111 अर्थात् अम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः ऐसा सिद्ध होने पर जो घन शब्द का ग्रहण किया गया है, उससे ऐसा प्रतीत होता है--- ।' यहाँ प्रतीयते शब्द निश्चयात्मक नहीं है, सन्देहात्मक है। --- यदि भाष्यकार ही सूत्रकार होते, तो अपने ही द्वारा प्रयुक्त 'घन' शब्द के अर्थ के विषय में उनके मन में अनिश्चयात्मकता न रहती । इसलिए वे प्रतीयते क्रिया का प्रयोग न कर ज्ञाप्यते जैसी क्रिया का प्रयोग करते । सिद्धसेनगणी ने अपनी टीका में 'प्रतीयते' क्रिया को उड़ा ही दिया है और भाष्य का अर्थ करते हुए ज्ञाप्यते क्रिया का प्रयोग किया है, जो निश्चयात्मक है । ( कैलाशचन्द्र शास्त्री / जै.सा.इ./भा.२/पृ.२४२-४३)। १०३.‘“प्राणापानपर्याप्तिरित्यत्र भाष्ये व्याख्यास्येते, कथं तर्हि व्याख्यातौ ? आशंसायामर्थे भूतवद् वर्तमानवच्च प्रत्यया भवन्ति, उपाध्यायश्चेद् आगमिष्यति तद्व्याकरणमधीतमेवमिहापि नामकर्माशंसितमित्यदोषः । " तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ५ /१९ / पृ. ३४२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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