SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्तस्तत्त्व [ तेईस] ६५५ ६५६ ६५६ ६५७ ६५८ ६६० ६६१ ६६२ ६६३ ६६४ ६६५ ६६६ ६६७ १. केवलिभुक्तिनिषेध - केवलिभुक्तिनिषेध पर आवरण : छलवाद २. वैकल्पिक-सवस्त्रमुक्तिनिषेध २.१. राजा वरांग की दैगम्बरी दीक्षा २.२. वसंगियों के वर्णन को वरांग का वर्णन कहना छलवाद २.३. वरांग की सवस्त्रदीक्षा की संभावना के लिए स्थान नहीं २.४. साधु के साथ 'सवस्त्र' शब्द का प्रयोग एक भी बार नहीं २.५. 'विशीर्णवस्त्रा' मुनियों का नहीं, आर्यिकाओं का विशेषण २.६. निर्ग्रन्थशूर ही मोक्ष के पात्र २.७. परीषहजयविधान दिगम्बरत्व की अनिवार्यता का सूचक ३. स्त्रीमुक्तिनिषेध ४. महावीर का विवाह न होने की मान्यता ५. अन्यलिंगिमुक्ति-निषेध ६. महाव्रतों की भावनाएँ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य से भिन्न ७. यापनीयमत-विरुद्ध अन्य सिद्धान्त द्वितीय प्रकरण-यापनीयपक्षधर हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता १. 'श्रवण' या 'श्रमण' सचेलमुनि का वाचक नहीं २. पुन्नाटसंघ का विकास पुन्नागवृक्षमूलगण से नहीं ३. काणूगण दिगम्बरसम्प्रदाय का ही गण था ४. कोप्पल से सम्बद्ध होना यापनीय होने का लक्षण नहीं ५. 'यति' शब्द का प्रयोग यापनीय होने का लक्षण नहीं ६. वरांगचरित में श्वेताम्बरसाहित्य का अनुसरण नहीं ७. विमलसूरि के पउमचरिय का अनुकरण नहीं ८. कल्पों की बारह संख्या भी दिगम्बरमान्य ९. दिगम्बरपरम्परा में कर्मणा वर्णव्यवस्था मान्य - उपसंहार : वरांगचरित के दिगम्बरकृति होने के प्रमाण सूत्ररूप में ६६७ ६६८ ६७० ६७० ६७४ ६७५ ६७६ ६७६ ६७७ ६७९ ६८० ६८० ६८३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy