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________________ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २९५ तक अनाहारक (आहारक वर्गणाएँ ग्रहण न करनेवाला) बतलाया गया है, जिसका तात्पर्य यह है कि शेष समय में वह आहारक होता है। कर्माहार (ज्ञानावरणदि कर्मपुद्गलों का ग्रहण) तो विग्रहगति में भी होता है, अतः विग्रहगति में नोकर्माहार ग्रहण न करने की अपेक्षा से ही जीव को अनाहारक कहा गया है। पूर्वभव को छोड़कर उत्तरभव में जाते समय विग्रहगति में शरीर का अभाव होता है, अतः जीव नवीन शरीर धारण करने के लिए जो औदारिक, वैक्रियिक एवं आहारक, इन तीन शरीरों और छह पर्याप्तियों की रचना के योग्य पुद्गल पिण्ड ग्रहण करता है, वह 'नोकर्माहार' कहलाता है। वह नोकर्माहार-ग्रहण विग्रहगति में एक, दो या तीन समय तक नहीं होता, शेष समय में होता है। यदि केवल कवलाहार की अपेक्षा जीव को आहारक माना जाय, तो भोजनकाल को छोड़कर सदैव अनाहारक रहने का प्रसंग आता है, केवल तीन समय तक अनाहारक रहने का नियम घटित नहीं होता। पूर्वपक्ष-"अनुमानप्रमाण से केवली कवलाहारी सिद्ध होते हैं। अनुमान इस प्रकार है-जैसे वर्तमान मनुष्य, मनुष्य होने के कारण कवलाहारी होते हैं, वैसे ही केवली भी मनुष्य हैं, अतः वे भी कवलाहारी होते हैं। उत्तरपक्ष-"यह अनुमान निर्दोष नहीं है, क्योंकि इससे पूर्वकालीन पुरुषों में सर्वज्ञत्व और विशेषसामर्थ्य का अभाव सिद्ध होता है। अनुमान का उदाहरण देखिए-जैसे वर्तमान पुरुष मनुष्य होने के कारण सर्वज्ञ नहीं हैं, वैसे ही पूर्वपुरुष भी मनुष्य थे, अतः सर्वज्ञ नहीं थे। अथवा जैसे वर्तमान मनुष्यों में विशेष सामर्थ्य नहीं है, क्योंकि वे मनुष्य हैं, वैसे ही राम-रावणादि में विशेषसामर्थ्य नहीं था, क्योंकि वे मनुष्य थे। मनुष्यत्व-हेतु पर आश्रित यह अनुमान आगमप्रमाण से बाधित है, क्योंकि पूर्वकालीन तीर्थंकरादि पुरुषों का सर्वज्ञ होना तथा राम-रावणादि पुरुषों का विशेषसामर्थ्यवान् होना आगमसिद्ध है। जिस प्रकार मनुष्यत्व के हेतु पर आधारित यह अनुमान निर्दोष नहीं है, उसी प्रकार मनुष्यत्व-हेतु के आधार पर केवली को कवलाहारी मानने का अनुमान भी निर्दोष नहीं है। "इसके अतिरिक्त यद्यपि आहारसंज्ञा छठे गुणस्थान तक कही गई है-'छट्ठो त्ति पढमसण्णा' (गो.जी./गा. ७०२/पृ. ९१९), तथापि सप्तधातुविहीन परमौदारिक शरीर से रहित प्रमत्तसंयतगुणस्थानवर्ती छद्मस्थ मुनि भी ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिए ही आहार ग्रहण करते हैं, न कि देहममत्व के कारण। तब केवली भगवान् में तो ज्ञान, संयम, ध्यान आदि गुण स्वभाव से ही विद्यमान रहते हैं, आहार बल से नहीं आते, अतः उन्हें आहार की आवश्यकता ही नहीं होती। यदि यह माना जाय कि केवली भगवान् देहममत्व के कारण कवलाहार ग्रहण करते हैं, तब तो वे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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