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________________ २९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ छद्मस्थों से भी हीन सिद्ध होंगे। अतः स्पष्ट है कि वे देहममत्व के कारण आहार ग्रहण नहीं करते। निष्कर्ष यह कि केवली भगवान् को न तो कवलाहार की आवश्यकता होती है, न ही वे उसे ग्रहण करते हैं। पूर्वपक्ष-"केवलज्ञान के अतिशय के कारण भगवान् का भोजन करना दिखाई नहीं देता, अदृश्य रहता है। उत्तरपक्ष-"तब तो परमौदारिक शरीर के कारण उन्हें भोजन के ही अनावश्यक होने का अतिशय क्यों नहीं हो सकता? प्रच्छन्नरूप से भोजन करने में तो मायाचार, दैन्यवृत्ति तथा पिण्डशुद्धि में वर्णित अन्य बहुत से दोष होते हैं।" इस तरह आचार्य जयसेन ने तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित सिद्धान्तों के ही आधार पर केवली का कवलाहारी होना अयुक्तिमत् सिद्ध किया है। १.७.१. नाग्न्यपरीषह के उल्लेख से केवली का कवलाहारी होना निषिद्धइसके अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र में संवरनिर्जरा के लिए नाग्न्यपरीषहजय की आवश्यकता बतलाये जाने से स्पष्ट है कि उसमें सवस्त्रमुक्ति का निषेध किया गया है। और श्वेताम्बराचार्यों ने यह स्वयं सिद्ध किया है कि सवस्त्रमुक्ति का निषेध होने पर केवलिभुक्ति का निषेध स्वयमेव हो जाता है। श्वेताम्बरग्रन्थ प्रवचनपरीक्षा के कर्ता उपाध्याय धर्मसागर जी शिवभूति को दिगम्बरमत का प्रवर्तक मानकर उस पर आक्षेप करते हुए लिखते हैं "अथोत्पन्नदिव्यज्ञाना अर्हन्तो न भिक्षार्थं व्रजन्ति, साध्वानीतान्नादिभुक्तौ च सप्तविधः पात्रनिर्योगोऽवश्यमभ्युपगन्तव्यः स्यात्। तथा च नाग्न्यव्रतं स्त्रीमुक्तिनिषेधश्चेत्युभयमपि दत्ताञ्जल्येव स्यादिति विचिन्त्य शिवभूतिना केवलिनो भुक्तिनिषिद्धा।" (प्रव.परी./ पातनिका/१/२/४३/पृ. १०४)। अनुवाद-"केवलज्ञान होने पर अरहन्त भिक्षा के लिए नहीं जाते और साधुओं द्वारा लाये गये अन्नादि का भोजन करने पर सात प्रकार के पात्रादि को स्वीकार करना आवश्यक है। ऐसा करने पर नाग्न्यव्रत और स्त्रीमुक्तिनिषेध दोनों को तिलांजलि देनी होगी। यह सोचकर शिवभूति ने केवली के कवलाहार का निषेध कर दिया।" यह कथन अत्यन्त युक्तिसंगत है। दिगम्बर साधु के पास भोजन लाने के लिए पात्र तथा पात्र को बाँधने के लिए वस्त्र आदि का होना संभव नहीं है, इसलिए उनके द्वारा भोजन लाकर केवली को दिया जाना असंभव है। इस तरह नाग्न्यव्रत को मोक्ष के लिए आवश्यक मानने वालों के मत में केवलिभुक्ति मान्य नहीं हो सकती। तत्त्वार्थसूत्र ७७. 'सप्तविधपात्रनिर्योग'-देखिये, अध्याय २/ प्रकरण ३/ शीर्षक ३.३.१ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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