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________________ अ०२३ ७४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ का उल्लेख है। दिगम्बरमत के अनुसार स्त्री के लिए सर्वपरिग्रह का त्याग संभव नहीं है, क्योंकि उसमें वस्त्र भी परिग्रह माना गया है। किन्तु श्वेताम्बर और यापनीय मतों में स्त्रीमुक्ति मान्य होने से वस्त्रधारण करते हुए भी सर्वपरिग्रहत्याग का कथन युक्तिसंगत हो जाता है। अतः यह यापनीयग्रन्थ है। (जै.ध.या.स./पृ. १६८)। दिगम्बरपक्ष पूर्व में अनेक स्थानों पर स्पष्ट किया जा चुका है कि दिगम्बरमत में आर्यिका को उपचार से महाव्रती कहा गया है, इसलिए सर्वपरिग्रहत्याग का कथन भी औपचारिक ही है। दिगम्बरग्रन्थ भगवती-आराधना की 'इत्थीवि य जं लिंगं दिटुं' इत्यादि गाथा (८०) और उसकी विजयोदयाटीका में आर्यिकाओं के एकसाड़ीरूप अल्पपरिग्रहात्मक लिंग को सर्वपरिग्रहत्यागरूप उत्सर्गलिंग कहा गया है। इसकी चर्चा 'भगवती-आराधना' नामक त्रयोदश अध्याय में की जा चुकी है। अतः रोहिणी महारानी के द्वारा सर्वपरिग्रहत्याग किये जाने का उल्लेख दिगम्बरमत के सर्वथा अनुकूल है। इसलिए उक्त उल्लेख से बृहत्कथाकोश यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होता। गृहस्थमुक्तिनिषेध यापनीयपक्ष यापनीयपक्षधर लेखक-लेखिका ने चौथा हेतु यह बतलाया है कि बृहत्कथाकोशगत अशोकरोहिणीकथानक (क्र.५७) के निम्नलिखित श्लोक में गृहस्थमुक्ति का कथन है, जो यापनीयमत का सिद्धान्त है अणुव्रतधरः कश्चिद् गुणशिक्षाव्रतान्वितः। सिद्धिभक्तो व्रजेत्सिद्धिं मौनव्रतसमन्वितः॥ ५६७॥ अनुवाद-"कोई सिद्धिभक्त (सिद्धि चाहनेवाला) अणुव्रतादिधारी श्रावक भी यदि मौनव्रत की साधना करता है, तो वह सिद्धि को प्राप्त होता है।" दिगम्बरपक्ष १. उक्त लेखक-लेखिका ने यहाँ जो ‘सिद्धि' का अर्थ 'मोक्ष' लिया है, वह बृहत्कथाकोशकार के अभिप्राय के अनुरूप नहीं है। उनके अनुसार तो अणुव्रतधारी १०. रोहिणी च महादेवी हित्वा सर्वं परिग्रहम्। वासुपूज्यं जिनं नत्वा सुमत्यन्ते तोऽग्रहीत्॥ ५७/५८२॥ ११. देखिये, अध्याय १३-भगवती-आराधना/ प्रकरण ३/शीर्षक ५। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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