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________________ अ०१८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५२९ है, अतः एकान्त के साधन में प्रयुक्त हेतु सिद्धसेन की दृष्टि में असिद्ध है, यह वचन सूक्त न होकर अयुक्त है," तब उन्होंने यह कहते हुए कि "क्या उसने कभी यह वाक्य नहीं सुना है" सन्मतिसूत्र की 'जे संतवायदोसे' इत्यादि कारिका (३/५०) को उद्धृत किया है और उसके द्वारा एकान्तसाधन में प्रयुक्त हेतु को सिद्धसेन की दृष्टि में असिद्ध प्रतिपादन करना सन्निहित बतलाकर उसका समाधान किया है। यथा "असिद्ध इत्यादि, स्वलक्षणैकान्तस्य साधने सिद्धावङ्गीक्रियमाणायां सर्वो हेतुः सिद्धसेनस्य भगवतोऽसिद्धः। कथमिति चेदुच्यते---। ततः सूक्तमेकान्तसाधने हेतुरसिद्धः सिद्धसेनस्येति। कश्चित्स्वयूथ्योऽत्राह-सिद्धसेनेन क्वचित्तस्याऽसिद्धस्याऽवचनादयुक्तमेतदिति। तेन कदाचिदेतत् श्रुतं-'जे संतवायदोसे सक्कोल्लूया भणंति संखाणं। संखा य असव्वाए तेसिं सव्वे वि ते सच्चा'॥" "इन्हीं सब बातों को लक्ष्य में रखकर प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् स्वर्गीय श्रीमोहनलाल दुलीचन्द देसाई बी.ए., एल-एल.बी. एडवोकेट हाईकोर्ट, बम्बई ने अपने 'जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' नामक गुजराती ग्रन्थ (पृ. ११६) में लिखा है कि "सिद्धसेनसूरि प्रत्येनो आदर दिगम्बरो विद्वानोमां रहेलो देखाय छे" अर्थात् (सन्मतिकार) सिद्धसेनाचार्य के प्रति आदर दिगम्बर विद्वानों में रहा दिखाई पड़ता है, श्वेताम्बरों में नहीं। साथ ही हरिवंशपुराण, राजवार्तिक, सिद्धिविनिश्चय-टीका, रत्नमाला, पार्श्वनाथचरित और एकान्तखण्डन जैसे दिगम्बरग्रन्थों तथा उनके रचयिता जिनसेन, अकलङ्क, अनन्तवीर्य, शिवकोटि, वादिराज और लक्ष्मीभद्र (धर) जैसे दिगम्बर विद्वानों का नामोल्लेख करते हुए यह भी बतलाया है कि "इन दिगम्बर विद्वानों ने सिद्धसेनसूरिसम्बन्धी और सन्मतितर्क -सम्बन्धी उल्लेख भक्तिभाव से किये हैं, और उन उल्लेखों से यह जाना जाता है कि दिगम्बर ग्रन्थकारों में घना समय तक सिद्धसेन के (उक्त) ग्रन्थ का प्रचार था और वह प्रचार इतना अधिक था कि उस पर उन्होंने टीका भी रची है।" (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ. १६६-१६७)। ___ "इस सारी परिस्थिति पर से यह साफ समझा जाता और अनुभव में आता है कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन एक महान् दिगम्बराचार्य थे, और इसलिये उन्हें श्वेताम्बर परम्परा का अथवा श्वेताम्बरत्व का समर्थक आचार्य बतलाना कोरी कल्पना के सिवाय और कुछ भी नहीं है। वे अपने प्रवचन-प्रभाव आदि के कारण श्वेताम्बरसम्प्रदाय में भी उसी प्रकार से अपनाये गये हैं, जिस प्रकार कि स्वामी समन्तभद्र, जिन्हें श्वेताम्बर पट्टावलियों में पट्टाचार्य तक का पद प्रदान किया गया है और जिन्हें पं० सुखलाल, पं० बेचरदास और मुनि जिनविजय आदि बड़े-बड़े श्वेताम्बर विद्वान् भी अब श्वेताम्बर न मानकर दिगम्बर मानने लगे हैं।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./पृ. १६७)।। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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