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________________ ४३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र०१ मुनियों का ही उल्लेख है। एक भी आर्यिका या विरती के मुक्तिगमन. का कथन नहीं है। स्वयं मल्लिनाथ तीर्थंकर के काल में भी केवल २८,८०० यतियों को मोक्षप्राप्ति बतलायी गयी है, मोक्ष प्राप्त करनेवालों में आर्यिकाओं का नामोनिशाँ भी नहीं है। तिलोयपण्णत्ती में स्त्रीमुक्ति की अस्वीकृति का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है? २.४. मल्लिनाथ का अवतार अपराजित स्वर्ग से, जयन्त से नहीं श्वेताम्बर-आगम ज्ञातृधर्मकथांग में कहा गया है कि मल्लितीर्थंकरी जयन्त नामक अनुत्तर स्वर्ग से अवतरित होकर मिथिला की रानी प्रभादेवी के गर्भ में आयी थीं, जब कि तिलोयपण्णत्ती के अनुसार मल्लितीर्थंकर का अवतार अपराजित नामक अनुत्तर स्वर्ग से हुआ था। यापनीय श्वेताम्बर-आगमों को मानते थे। अतः तिलोयपण्णत्ती का मत यापनीयमत के विरुद्ध है। इससे भी सिद्ध होता है कि तिलोयपण्णत्ती यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ नहीं है। २.५. हुण्डावसर्पिणी के दोषों में स्त्रीतीर्थंकर का उल्लेख नहीं श्वेताम्बरसाहित्य के अनुसार वर्तमान हुण्डावसर्पिणीकाल में निम्नलिखित दस आश्चर्यजनक घटनाएँ घटी हैं-१.तीर्थंकरों पर उपसर्ग, २. भगवान् महावीर का गर्भापहरण, ३.स्त्री को तीर्थंकरत्व की प्राप्ति, ४. अभावित परिषत् : भगवान् महावीर के प्रथम उपदेश की विफलता। उसे सुनकर किसी ने चारित्र अंगीकार नहीं किया, ५. कृष्ण का अमरकंका नगरी में गमन, ६. चन्द्र और सूर्य देवों का विमानसहित पृथ्वी पर अवतरण, ७. हरिवंशकुल की उत्पत्ति, ८.चमर का उत्पात : चमरेन्द्र का सौधर्मकल्प में गमन, ९.एक समय में एक साथ एक सौ आठ जीवों को सिद्धत्व की प्राप्ति, और १०.असंयमी की पूजा। इन दस आश्चर्यजनक घटनाओं में मल्लीकुमारी स्त्री का तीर्थंकरपद प्राप्त करना भी एक आश्चर्यजनक घटना बतलाई गई है। किन्तु , तिलोयण्पण्णत्ती में हुण्डावसर्पिणीकाल के लक्षणों का वर्णन इस प्रकार किया गया है ५. तिलोयपण्णत्ती ४/१२२९-४० । ६."तए णं ये महब्बले देवे---जयंताओ विमाणाओ बत्तीससागरोवमट्टिइयाओ अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबुद्दीपे दीवे भारहे वासे मिहिलाए रायहाणीए कुंभगस्स रन्नो पभावईए , देवीए कुच्छिंसि ---गब्भत्ताए वक्कंते।" ज्ञाताधर्मकथा /अध्ययन ८, मल्ली/अनुच्छेद २४/ पृष्ठ २२२ । ७. अपराजियाभिहाणा अर-णमि-मल्लीओ णेमिणाहो य। सुमई जयंत-ठाणा आरण-जुगला य सुविहि सयिलया॥ ४ / ५३०॥ तिलोयपण्णत्ती। ८. स्थानांगसूत्र १०/१६०/संग्रहणी गाथा १-२/तथा प्रवचनसारोद्धार / गा.८८५-८९। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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