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________________ अ०१८/प्र०३ ५५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ सर्वार्थसिद्धि - व्रतमभिसन्धिकृतो नियमः। (७/१/६६४/ पृ. २६४)। "यहाँ यानवाहन आदि पदों के द्वारा अनिष्ट की व्याख्या की गई है, शेष भोगोपभोगपरिमाणव्रत में अनिष्ट के निवर्तन का कथन समन्तभद्र का अनुसरण है। साथ में कालनियमेन और यावज्जीवं जैसे पद समन्तभद्र के नियम और यम के आशय को लिये हुए हैं, जिनका लक्षण रत्नकरण्डश्रावकाचार के अगले पद्य (८७) में ही दिया हुआ है। भोगोपभोग-परिमाणव्रत के प्रसंगानुसार समन्तभद्र ने उक्त पद्य के उत्तरार्ध । में यह निर्देश किया था कि अयोग्य विषय से ही नहीं, किन्तु योग्य विषय से भी जो अभिसन्धिकृता विरति होती है, वह व्रत कहलाती है। पूज्यपाद ने इस निर्देश से प्रसंगोपात्त विषयायोग्यात् पदों को निकाल कर उसे व्रत के साधारण लक्षण के रूप में ग्रहण किया है, और इसी से उस लक्षण को प्रकृत अध्याय (नं. ७) के प्रथम सूत्र की व्याख्या में दिया है। रत्नकर. श्रा. - आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन। : वैयावृत्यं ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्त्राः॥ ११७॥ सर्वार्थसिद्धि - स (अतिथिसंविभागः) चतुर्विधः भिक्षोपकरणौषध-प्रतिश्रय भेदात्।" (७/२१/७०३ / पृ.२८०)। यहाँ पूज्यपाद ने समन्तभद्र प्रतिपादित दान के चारों भेदों को अपनाया है। उनके भिक्षा और प्रतिश्रय शब्द क्रमशः आहार और आवास के लिये प्रयुक्त हुए हैं। "इस प्रकार ये तुलना के कुछ नमूने हैं, जो श्री पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि पर स्वामी समन्तभद्र के प्रभाव को, उनके साहित्य की छाप को, स्पष्टतया बतला रहे हैं और द्वितीय साधन को दूषित ठहरा रहे हैं। ऐसी हालत में मित्रवर पं० सुखलाल जी का यह कथन कि 'पूज्यपाद ने समन्तभद्र की असाधारण कतियों का किसी अंश में स्पर्श भी नहीं किया' बड़ा ही आश्चर्यजनक जान पड़ता है और किसी तरह भी संगत मालूम नहीं होता। आशा है पं० सुखलाल जी उक्त तुलना की रोशनी में इस विषय पर फिर से विचार करने की कृपा करेंगे।" (जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश / प्रथम खण्ड / पृ.३२३-३३९)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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