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________________ अ०१८ / प्र०३ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५५३ "यहाँ प्रयोजनमन्तरेण यह पद विफलं पद का समानार्थक है, वृक्षादि पद वनस्पति के आशय को लिये हुए है, कुट्टन-सेचन में आरम्भ के आशय का एकदेश प्रकटीकरण है और आदि अवद्यकार्य में दहन-पवनारम्भ तथा सरण-सारण का आशय संगृहीत है। १२ रत्नकर. श्रा. - सहतिपरिहरणार्थं क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहृतये। मद्यं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातैः॥ ८४॥ सर्वार्थसिद्धि - मधु मांसं मद्यं च सदा परिहर्त्तव्यं त्रसघातान्निवृत्तचेतसा। (७/२१)। "यहाँ सघातान्निवृत्तचेतसा ये शब्द त्रसहतिपरिहरणार्थं पद के स्पष्ट आशय को लिये हुए हैं और मधु मांसं परिहर्तव्यं पद क्रमशः क्षौद्रं, पिशितं, वर्जनीयं के पर्यायपद हैं। १४ रत्नकर. श्रा. - अल्पफलबहुविघातान्मूलकमाणि शृङ्गवेराणि। . नवनीतनिम्बकुसुमं कैतकमित्येवमवहेयम्॥ ८५॥ सर्वार्थसिद्धि – केतक्यर्जुनपुष्पादीनि शृङ्गवेरमूलकादीनि बहुजन्तुयोनि-स्थाना न्यनन्तकायव्यपदेशार्हाणि परिहर्तव्यानि बहुघाताल्प-फलत्वात्। • (७/२१/७०३/ पृ. २७८) "यहाँ बहुघाताल्पफलत्वात् पद अल्पफलबहुविघातात् पद का शब्दानुसरण के साथ समानार्थक है, परिहर्तव्यानि पद हेयं के आशय को लिये हुए है और बहुजन्तुयोनिस्थानानि एवं अनन्तकायव्यपदेशार्हाणि जैसे दो पद स्पष्टीकरण के रूप में हैं। रत्नकर. श्रा. - यदनिष्टं तव्रतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात्। अभिसन्धिकृता विरतिर्विषयायोग्याव्रतं भवति॥ ८६॥ सर्वार्थसिद्धि - यानवाहनाभरणादिष्वेतावदेवेष्टमतोऽन्यदनिष्टमित्यनिष्टान्नि वर्तनं कर्तव्यं कालनियमेन यावज्जीवं वा यथाशक्ति। (७ / २१/७०३/पृ. २८०)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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