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________________ अ० १३ / प्र०२ भगवती-आराधना / ९१ 'भगवती-आराधना' आदि आराधना-ग्रन्थों में जो कथाएँ हैं, अथवा (अनुपलब्ध आराधनाग्रन्थों में) रही होंगी, वे दिगम्बरपरम्परा की ही कथाएँ हैं। अतः भगवतीआराधना में उल्लिखित मेतार्य मुनि की कथा भी दिगम्बरसाहित्य की ही कथा है, उसे श्वेताम्बरीय कथा मानने का कोई आधार नहीं है। फलस्वरूप उसे श्वेताम्बरीय कथा मानना असत्य मान्यता है। अतः इस हेतु के असत्य होने से इसके आधार पर किया गया निर्णय भी असत्य है। अर्थात् भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। आश्चर्य तो यह है कि प्रेमी जी को जब यह पता चल गया कि दिगम्बरग्रन्थ बृहत्कथाकोश में भी मेतार्य मुनि की कथा है और वह दिगम्बरमत के सर्वथा अनुरूप है, तब भी उन्होंने अपने ग्रन्थ के द्वितीय संस्करण में इस हेतु को निरस्त नहीं किया। 'विजहना-विधि' दिगम्बरपरम्परानुकूल यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"आराधना का चालीसवाँ 'विजहना' नामक अधिकार भी विलक्षण और दिगम्बर-सम्प्रदाय के लिए अभूतपूर्व है, जिसमें मुनि के मृत शरीर को रात्रिभर जागरण करके रखने की और दूसरे दिन किसी अच्छे स्थान में वैसे ही (बिना जलाये) छोड़ आने की विधि वर्णित है। अन्य किसी दिगम्बरग्रन्थ में अभी तक यह पारसी लोगों जैसी विधि देखने में नहीं आई है।" (जै.सा.इ./प्र.सं./ पृ.५९)। दिगम्बरपक्ष __इन्हीं प्रेमी जी ने अपने एक पूर्व लेख में इस विधि का विस्तार से वर्णन किया है और स्वयं उन्होंने इसका औचित्य इन शब्दों में प्रतिपादित किया है "जहाँ तक हम जानते हैं, बहुत कम लोगों को यह मालूम होगा कि पारसियों के समान जैन साधुओं का शरीर भी पूर्वकाल में खुली जगह में छोड़ दिया जाता था और उसे पशु-पक्षी भक्षण कर जाते थे। वास्तव में सर्वथा स्वावलम्बशील साधुसमुदाय के लिए, जो जनहीन जंगल-पहाड़ों के रास्ते हजारों कोस विहार करता था, इसके सिवाय और विधि हो ही नहीं सकती थी। श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के विद्वानों से मालूम हुआ कि उनके ग्रन्थों में भी मुनियों के शवसंस्कार की पुरातन विधि यही है।" ११८ ११८. पं० नाथूराम जी प्रेमी : 'भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ'। 'अनेकान्त'। वर्ष १/ किरण ३/माघ, वीर नि.सं. २४५६ / पृष्ठ १५१। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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