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________________ अ०१८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४९१ तथा वैस्रसिक (स्वाभाविक ) ऐसे दो भेद किये हैं, उनमें वैस्रसिक उत्पाद के भी समुदायकृत तथा ऐकत्विक ऐसे दो भेद निर्दिष्ट किये हैं, और फिर यह बतलाया है कि ऐकत्विक उत्पाद आकाशादिक तीन द्रव्यों (आकाश, धर्म, अधर्म) में परनिमित्त से होता है और इसलिये अनियमित होता है। नाश की भी ऐसी ही विधि बतलाई है। इससे सन्मतिकार सिद्धसेन की इन तीन अमूर्तिक द्रव्यों के, जो कि एक-एक हैं, अस्तित्व - विषय में मान्यता स्पष्ट है । यथा उप्पाओ दुवियप्पो पओगजणिओ व विस्ससा चेव । तत्थ उ पओगजणिओ समुदयवायो अपरिसुद्धो ॥ ३२॥ साभाविओ व समुदयकओ व्व एगत्तिओ व्व होजाहि । आगासाईआणं तिण्हं परपच्चओऽणियमा ॥ ३३ ॥ विगमस्स वि एस विही समुदयजणियम्मि सो उ दुवियप्पो । समुदयविभागमेत्तं अत्थंतरभावगमणं च ॥ ३४॥ 44 'इस तरह यह निश्चयद्वात्रिंशिका कतिपय द्वात्रिंशिकाओं, न्यायावतार और सन्मति के विरुद्ध प्रतिपादनों को लिये हुए है । सन्मति के विरुद्ध तो वह सबसे अधिक जान पड़ती है और इसलिये किसी तरह भी सन्मतिकार सिद्धसेन की कृति नहीं कही जा सकती।" (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता. / पृ. १३९-१४०)। ५. ९. निश्चयद्वात्रिंशिकाकार सिद्धसेन के लिए 'द्वेष्य श्वेतपट' विशेषण का प्रयोग "यही एक द्वात्रिंशिका ऐसी है जिसके अंत में उसके कर्ता सिद्धसेनाचार्य को अनेक प्रतियों में श्वेतपट (श्वेताम्बर) विशेषण के साथ 'द्वेष्य' विशेषण से भी उल्लेखित किया गया है, जिसका अर्थ द्वेषयोग्य, विरोधी अथवा शत्रु का होता है और यह विशेषण सम्भवतः प्रसिद्ध जैन सैद्धान्तिक मान्यताओं के विरोध के कारण ही उन्हें अपने ही सम्प्रदाय के किसी असहिष्णु विद्वान् द्वारा दिया गया जान पड़ता है। जिस पुष्पिकावाक्य के साथ इस विशेषण पद का प्रयोग किया गया है, वह भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट, पूना और एशियाटिक सोसाइटी बङ्गाल (कलकत्ता) की प्रतियों में निम्न प्रकार से पाया जाता है— Jain Education International "द्वेष्यश्वेतपटसिद्धसेनाचार्यस्य कृतिः निश्चयद्वात्रिंशिकैकोनविंशतिः ।" "दूसरी किसी द्वात्रिंशिका के अन्त में ऐसा कोई पुष्पिकावाक्य नहीं है । पूर्व की १८ और उत्तरवर्ती १ ऐसे १९ द्वात्रिंशिकाओं के अन्त में तो कर्ता का नाम तक भी नहीं दिया है। द्वात्रिंशिका की संख्यासूचक एक पंक्ति इति शब्द से युक्त अथवा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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