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________________ अ०१३ / प्र०२ भगवती-आराधना / ६७ संथारग, मरणसमाही एवं नियुक्ति आदि की अनेकों गाथाओं की उपस्थिति यह सिद्ध करती है कि वह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है।" (जै.ध.या.स./ पृ.१३०)। डॉक्टर सा० द्वारा उपस्थित किया गया यह हेतु असत्य है, क्योंकि श्वेताम्बरों और यापनीयों की जिस सामान्य पूर्वपरम्परा से श्वेताम्बरीय गाथाओं-सदृश गाथाओं की भगवती-आराधना को उत्तराधिकार में प्राप्ति मानी गयी है, वह थी ही नहीं। इसकी सप्रमाण सिद्धि द्वितीय अध्याय में की जा चुकी है। अतः हेतु के असत्य होने से सिद्ध है कि भगवती-आराधना यापनीयग्रन्थ नही है। दिगम्बर-श्वेताम्बर-भेद का इतिहास नामक षष्ठ अध्याय में युक्ति-प्रमाण-पूर्वक सिद्ध किया गया है कि एकान्त-अचेल-मुक्तिवादी मूल निर्ग्रन्थसंघ के विभाजन से केवल नवीन श्वेताम्बरसंघ की उत्पत्ति हुई थी, न कि श्वेताम्बर और यापनीय दो संघों की। अतः सामान्य पूर्वपरम्परा अर्थात् विभाजनपूर्व की समान आचार्यपरम्परा एकान्तअचेलमुक्तिवादी मूल निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बरसंघ) तथा उससे उत्पन्न नवीन श्वेताम्बरसंघ की थी, श्वेताम्बर और यापनीय संघों की नहीं। इससे सिद्ध है कि भगवती-आराधनाकार को उक्त सदृश गाथाएँ दिगम्बरों और श्वेताम्बरों की इसी एकान्त-अचेलमुक्तिवादी समान पूर्वपरम्परा से प्राप्त हुई हैं। 'आराधना' की गाथाएँ श्वेताम्बरग्रन्थों में यद्यपि यह युक्तिसंगत है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्य में जो समान गाथाएँ हैं, वे दोनों सम्प्रदायों को उनकी समान पूर्वपरम्परा से प्राप्त हुई हैं, तथापि यह भी संभव है कि उनमें से अनेक दिगम्बरग्रन्थों से श्वेताम्बरग्रन्थों में पहुँची हों, क्योंकि एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय के साहित्य से स्वमतानुरूप सूक्तियाँ और नीतिकथाएँ निःसंकोच ग्रहण करता आया है। डॉ० सागरमल जी ने यह संभावना देखते हुए भगवतीआराधना का रचनाकाल उन श्वेताम्बरग्रन्थों के रचनाकाल से पश्चाद्वर्ती सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, जिनमें भगवती-आराधना की गाथाओं से मिलती-जुलती गाथाएँ हैं, ताकि यह सिद्ध न हो सके कि वे समान गाथाएँ भगवती-आराधना' से श्वेताम्बरग्रन्थों में आयी हैं, बल्कि यह सिद्ध हो कि श्वेताम्बरग्रन्थों से भगवती-आराधना में पहुंची हैं। उनका हेतुवाद निम्नलिखित वक्तव्य में दर्शनीय है "भगवती-आराधना के यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ होने के सम्बन्ध में---एक अन्य महत्त्वपूर्ण आधार यह भी है कि उसमें श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य प्रकीर्णकों से अनेक गाथाएँ हैं। पं० कैलाशचन्द्र जी ने भगवती-आराधना की भूमिका में इसका उल्लेख Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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