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________________ अ०१८/प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५३१ न्यायावतार के कर्ता एक अन्य श्वेताम्बर सिद्धसेन "परन्तु न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन की दिगम्बरसम्प्रदाय में वैसी कोई खास मान्यता मालूम नहीं होती और न उस ग्रन्थ पर दिगम्बरों की किसी खास टीकाटिप्पण का ही पता चलता है, इसी से वे प्रायः श्वेताम्बर जान पड़ते हैं। श्वेताम्बरों के अनेक टीका-टिप्पण भी न्यायावतार पर उपलब्ध होते हैं। उसके 'प्रमाणं स्वपराभासि' इत्यादि प्रथम श्लोक को लेकर तो विक्रम की ११वीं शताब्दी के विद्वान् जिनेश्वरसूरि ने उस पर प्रमालक्ष्म नाम का एक सटीक वार्तिक ही रच डाला है, जिसके अन्त में उसके रचने में प्रवृत्त होने का कारण उन दुर्जनवाक्यों को बतलाया है, जिनमें यह कहा गया है कि "इन श्वेताम्बरों के शब्दलक्षण और प्रमाणलक्षण-विषयक कोई ग्रन्थ अपने नहीं हैं, ये परलक्षणोपजीवी हैं, बौद्ध तथा दिगम्बरादि ग्रन्थों से अपना निर्वाह करनेवाले हैं, अतः ये आदि से नहीं, किसी निमित्त से नये ही पैदा हुए अर्वाचीन हैं।" साथ ही यह भी बतलाया है कि "हरिभद्र, मल्लवादी और अभयदेवसूरि-जैसे महान् आचार्यों के द्वारा इन विषयों की उपेक्षा किये जाने पर भी हमने उक्त कारण से यह प्रमालक्ष्म नाम का ग्रन्थ वार्तिकरूप में अपने पूर्वाचार्य का गौरव प्रदर्शित करने के लिये (टीका-"पूर्वाचार्यगौरव-दर्शनार्थं") रचा है और (हमारे भाई) बुद्धिसागराचार्य ने संस्कृत-प्राकृत शब्दों की सिद्धि के लिये पद्यों में व्याकरण ग्रन्थ की रचना की है।" ७१(पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता. / पृ. १६८)। ___ "इस तरह सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर और न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन श्वेताम्बर जाने जाते हैं। द्वात्रिंशिकाओं में से कुछ के कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर और कुछ के कर्ता श्वेताम्बर जान पड़ते हैं और वे उक्त दोनों सिद्धसेनों से भिन्न, पूर्ववर्ती तथा उत्तरवर्ती अथवा उनसे अभिन्न भी हो सकते हैं। ऐसा मालूम होता है कि उज्जयिनी की उस घटना के साथ जिन सिद्धसेन का सम्बन्ध बतलाया जाता है, उन्होंने सबसे पहले कुछ द्वात्रिंशिकाओं की रचना की है, उनके बाद दूसरे सिद्धसेनों ने भी कुछ द्वात्रिंशिकाएँ रची हैं और वे सब रचयिताओं के नाम-साम्य के कारण परस्पर में मिल-जुल गई हैं, अतः उपलब्ध द्वात्रिंशिकाओं में यह निश्चय करना कि कौन-सी द्वात्रिंशिका किस सिद्धसेन की कृति है, विशेष अनुसन्धान से सम्बन्ध रखता है। साधारणतौर पर उपयोग-द्वय के युगपद्वादादि की दृष्टि से, जिसे पीछे स्पष्ट किया जा चुका है, प्रथमादि पाँच द्वात्रिंशिकाओं को दिगम्बर सिद्धसेन की, १९वीं तथा ७४. देखिये, वार्तिक नं. ४०१ से ४०५ और उनकी टीका अथवा 'जैनहितैषी' भाग १३, अङ्क ९-१० में प्रकाशित मुनि जिनविजय जी का 'प्रमालक्षण' नामक लेख। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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