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५३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र० १
२१वीं द्वात्रिंशिकाओं को श्वेताम्बर सिद्धसेन की और शेष द्वात्रिंशिकाओं को दोनों में से किसी भी सम्प्रदाय के सिद्धसेन की अथवा दोनों ही सम्प्रदायों के सिद्धसेनों की अलग-अलग कृति कहा जा सकता है। यही इन विभिन्न सिद्धसेनों के सम्प्रदायविषयक विवेचन का सार है ।" (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता. / पृ. १६८) ।
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