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________________ तीनों खण्डों की विषयवस्तु का परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ पृथक्-पृथक् ग्रथित तीन खण्डों में विभक्त है, अतः तीनों खण्डों की विषय वस्तु से एक साथ परिचित होने के लिए उसका संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है। प्रथम खण्ड की विषयवस्तु प्रथम खण्ड में क्रमशः प्रकाशकीय वक्तव्य, ग्रन्थकथा (ग्रन्थ-लेखन का प्रसंग, प्रेरणा, अनुकूलताओं का अतिशय, सहयोगियों का सौहार्द, गुरुओं का आशीर्वाद, प्रोत्साहन, उनके द्वारा पाण्डुलिपि का श्रवण एवं परिमार्जन, तथा आवश्यक ग्रन्थों की व्यवस्था इत्यादि का विवरण), ग्रन्थसार (ग्रन्थ के सभी अध्यायों का सार) और संकेताक्षरविवरण तथा प्रथम अध्याय से लेकर सप्तम अध्याय तक निम्नलिखित विषयों का विवेचन किया गया है प्रथम अध्याय-इस अध्याय में श्वेताम्बर मुनियों एवं विद्वानों के उन कपोलकल्पित मतों एवं कथाओं का वर्णन किया गया है, जिन्हें उन्होंने यह सिद्ध करने के लिए हेतु रूप में प्रस्तुत किया है कि दिगम्बरजैनमत तीर्थंकरोपदिष्ट एवं प्राचीन नहीं है, अपितु उसे वीरनिर्वाण सं० ६०९ (ई० सन् ८२) में गृहकलह के कारण श्वेताम्बर स्थविरकल्पी साधु बन जानेवाले बोटिक शिवभूति नाम के एक साधारण पुरुष ने चलाया था। कुछ आधुनिक श्वेताम्बर मुनियों एवं विद्वानों का कथन है कि दिगम्बरजैनमत का प्रवर्तन विक्रम की छठी शती में दक्षिण भारत में हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने किया था। आधुनिक श्वेताम्बर मुनि श्री कल्याणविजय जी ने कथा गढ़ी है कि आचार्य कुन्दकुन्द पहले यापनीयसंघ में दीक्षित हुए थे, पश्चात् उससे अलग हो गये और उन्होंने दिगम्बरमत की स्थापना की। श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी ने यह कल्पना की है कि आचार्य कुन्दकुन्द पहले भट्टारकसम्प्रदाय में भट्टारकपद पर दीक्षित हुए थे, कुछ समय बाद उस सम्प्रदाय की प्रवृत्तियों से असन्तुष्ट होकर उन्होंने आगमोक्त दिगम्बरजैनमत को पुनरुज्जीवित किया। वर्तमान श्वेताम्बर विद्वान् डॉ० सागरमल जी द्वारा यह कहानी रची गयी है कि 'भगवान् महावीर ने अचेलकधर्म का उपदेश नहीं दिया था, अपितु अचेल-सचेल दोनों धर्मों का उपदेश दिया था। अतः उनका अनुयायी श्रमणसंघ उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के नाम से जाना जाता था। ईसा की पाँचवीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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