SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 612
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/ प्र०४ उपयोग-क्रमवाद का खण्डन सिद्धसेन ने सन्मतिसूत्र में किया है, उसका सर्वप्रथम प्रतिपादन नियुक्तिकार भद्रबाहु (वि० सं० ५६२ = छठी शती ई०) ने किया था। पूज्यपाद स्वामी (४५० ई०) उनसे पूर्ववर्ती थे और उन्होंने अपने जैनेन्द्र व्याकरण के 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' सूत्र में समन्तभद्र का उल्लेख किया है, इससे समन्तभद्र पूज्यपाद और सिद्धसेन दोनों से पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। अतः संघवी जी का यह कथन मिथ्या साबित होता है कि सिद्धसेन समन्तभद्र से पूर्ववर्ती हैं। इसके अतिरिक्त संघवी जी आदि विद्वान् न्यायावतार को भी सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की कृति मानते हैं। उसमें समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार की 'आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्यम्' कारिका नौवें क्रमांक पर उपलब्ध होती है, इससे भी सिद्ध है कि समन्तभद्र सिद्धसेन से पूर्ववर्ती हैं। (देखिये, आगे शीर्षक ७.१)। किन्तु दिगम्बर विद्वान् प्रो० हीरालाल जी जैन ने 'जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय' नामक अपने लेख में यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' के कर्ता समन्तभद्र उन समन्तभद्र से भिन्न हैं, जिन्होंने आप्तमीमांसा की रचना की है। उसके कर्ता वे समन्तभद्र हैं, जो रत्नमाला (विक्रम की ११वीं शती) के रचयिता शिवकोटि के गुरु थे। (देखिये, आगे पंचम प्रकरण)। इसे प्रमाण मान कर पं० दलसुख मालवणिया 'न्यायावतारवार्तिकवृत्ति' की प्रस्तावना (पृ.१४१) में लिखते हैं-"रत्नकरण्ड के विषय में अब तो प्रो० हीरालाल ने यह सिद्ध कर दिया है कि वह समन्तभद्रकृत नहीं है (अनेकान्त / वर्ष ८/ किरण १-३), तब उसके आधार से यह कहना कि सिद्धसेन समन्तभद्र के बाद हुए , युक्तियुक्त नहीं।" __ पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अपने एक लेख में प्रो० हीरालाल जैन के तर्कों का अनेक प्रमाणों और युक्तियों से निरसन कर यह सिद्ध किया है कि रत्नकरण्ड के कर्ता वही समन्तभद्र हैं, जिन्होंने आप्तमीमांसा आदि ग्रन्थों की रचना की है। अतः वे सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन से पूर्ववर्ती ही हैं, उत्तरवर्ती नहीं। मुख्तार जी का यह लेख 'अनेकान्त' (वर्ष ९/ किरण १-४/२१ अप्रैल, १९४८/ पृ.१०२-१०४) में प्रकाशित हुआ था एवं उनके ग्रन्थ जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश (प्रथम खण्ड । पृ. ४३१-४८३) में संगृहीत है। उसका शीर्षक है 'रत्नकरण्ड के कर्तृत्व-विषय में मेरा विचार और निर्णय।' उसे यहाँ यथावत् उद्धृत कर रहा हूँ। केवल उसमें मूल उपशीर्षकों को कोष्ठक के भीतर रखते हुए नये उपशीर्षकों का प्रयोग मेरे द्वारा किया जा रहा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy