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अ० १६ / प्र० १
तत्त्वार्थसूत्र / २९३
आचार्य जयसेन ने तत्त्वार्थसूत्र के ही आधार पर केवली का कवलाहारी होना असम्भव बतलाया है। प्रवचनसार (गा. १ /२० पृ. २५ - २६) की तात्पर्यवृत्ति में पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के माध्यम से वे अपनी बात इस प्रकार रखते हैं
पूर्वपक्ष - " केवली कवलाहार करते हैं, क्योंकि वे हमारे समान ही औदारिक शरीरधारी होते हैं अथवा उनके भी असातावेदनीय कर्म का उदय होता है।
उत्तरपक्ष—“केवली भगवान् का शरीर औदारिक नहीं होता, अपितु परमौदारिक होता है, जैसा कि कहा गया है
शुद्धस्फटिकसङ्काशं तेजोमूर्तिमयं वपुः । जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातुविवर्जितम् ॥
“तथा असातावेदनीय का उदय रहता है, तो भी जैसे धान आदि के बीज जल आदि सहकारी कारणों के सहयोग से ही अंकुरोत्पत्ति में समर्थ होते हैं, वैसे ही असातावेदनीय कर्म भी मोहनीयकर्मरूप सहकारी कारण के सहयोग से ही क्षुधादिकार्य उत्पन्न करने में समर्थ होता है, क्योंकि 'मोहस्स बलेण घाददे जीवं' (मोह के बल से ही जीव का घात होता है - गो. क . / गा. १०) यह आगमवचन है।
"यदि वेदनीयकर्म मोहनीय के उदयाभाव में भी क्षुधादिपरीषह उत्पन्न करने में समर्थ हो, तो वह केवली में वध, रोग आदि परीषह भी उत्पन्न कर सकता है, किन्तु नहीं करता, जब कि वध, रोग आदि परीषह भी वेदनीय-कर्मोदय-जन्य ही बतलाये गये हैं। इससे सिद्ध है कि जैसे मोहनीयकर्म के उदयाभाव में वेदनीयकर्म का उदय केवली में वध, रोग आदि परीषह उत्पन्न नहीं कर सकता, वैसे ही क्षुधातृषा परीषह भी उत्पन्न नहीं कर सकता । 'भुक्त्युपसर्गाभावात्' (केवली के भोजन व उपसर्ग नहीं होते - नन्दीश्वरभक्ति / ४० ) यह शास्त्रवचन भी इसमें प्रमाण है ।
"केवली को कवलाहारी मानने में अन्य अनेक दोष भी हैं। उदाहरणार्थ यदि यह माना जाय कि उन्हें क्षुधा की बाधा होती है, तो क्षुधा से उनकी शक्ति का क्षीण होना भी मानना पड़ेगा। इससे उनमें अनंतवीर्य न होने का दोष आता है। इसी प्रकार यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि वे क्षुधा से दुःखी होते हैं, इससे उनमें अनन्तसुख के अभाव का दोष आता है। इसके अतिरिक्त जिह्वेन्द्रिय के द्वारा कवलाहार ग्रहण करने से मतिज्ञानी होने का प्रसंग उपस्थित होता है, जिससे उनमें केवलज्ञान के अभाव की दोषापत्ति होती है ।
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' तथा केवली में क्षुधा के अभाव को सिद्ध करनेवाले अन्य कारण भी हैं। जैसे, असातावेदनीय के उदय की अपेक्षा सातावेदनीय का उदय अनन्तगुणात्मक होता
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