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________________ अ०१३/प्र०१ भगवती-आराधना / ४७ "तत्पश्चात् सूक्ष्मकृष्टिरूप लोभ का वेदन करता हुआ सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थान को प्राप्त होता है, जहाँ उसे सूक्ष्मसाम्पराय-संयम की उपलब्धि होती है। दसवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्म लोभकृष्टि का क्षय होता है और साधु क्षीणकषायनामक १२वें गुणस्थान में पहुँचता है। वहाँ एकत्ववितर्कावीचार नामक शुक्लध्यान और यथाख्यातचारित्र के द्वारा शेष घातिकर्मों का. क्षय करता है, जो जीव के अन्यथाभाव में कारण होते हैं।"५० क्षीणकषाय गुणस्थान के उपान्त्य समय में निद्रा और प्रचला का विनाश होता है तथा अन्तिम समय में शेष घाती कर्मों (पाँच ज्ञानावरणों, चार दर्शनावरणों और पाँच अन्तराय कर्मों) का। उसी समय शुद्धकेवलज्ञान और शुद्धकेवलदर्शन उत्पन्न होते हैं।" (२०९२-२०९७)। इसके बाद उत्तर गाथाओं में अघातीकर्मों के क्षय का क्रम बतलाते हुए भगवतीआराधनाकार लिखते हैं "केवलज्ञान की प्राप्ति के अनन्तर जब तक शेष कर्मों की तथा अनुभूयमान मनुष्यायु की समाप्ति नहीं होती, तब तक केवलज्ञानी विहार करते रहते हैं। वे चारित्र को बढाते हए अधिक से अधिक कुछ कम एक पूर्वकोटि तक और कम से कम अन्तर्मुहूर्तमात्र काल तक विहार करते हैं। फिर अघाती कर्मों को नष्ट करने के लिए सत्यवचनयोग, अनुभयवचनयोग, सत्यमनोयोग, अनुभयमनोयोग, औदारिक-काययोग, औदारिक-मिश्रकाययोग तथा कार्मण-काययोग का निग्रह प्रारंभ करते हैं। उत्कर्ष से छह मास आयु शेष रहने पर जो केवलज्ञानी होते हैं, वे समुद्धात अवश्य करते हैं, शेष केवलज्ञानी करते भी हैं, नहीं भी करते हैं। जिनके नामकर्म, गोत्रकर्म और वेदनीयकर्म की स्थिति आयुकर्म के समान होती है, वे सयोगकेवली जिन समुद्धात किये बिना शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं। किन्तु जिनके आयुकर्म की स्थिति कम होती है और नाम, गोत्र तथा वेदनीय कर्मों की स्थिति अधिक होती है, वे समुद्धात करके ही शैलेशी अवस्था प्राप्त करते हैं, अर्थात् अयोगकेवली होते हैं। वे अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर सयोगकेवली-अवस्था में चारों कर्मों की स्थिति समान करने के लिए समुद्घात करते हैं।" (भ.आ./गा.२१०१-२१०६)। "जैसे गीला वस्त्र फैला देने पर शीघ्र सूख जाता है, उतनी जल्दी इकट्ठा रखा हुआ नहीं सूखता, कर्मों की भी दशा वैसी ही है। आत्मप्रदेशों के फैलाव से सम्बद्धकर्म की स्थिति बिना भोगे घट जाती है। समुद्धात से स्थितिबन्ध का कारणभूत स्नेह गुण नष्ट हो जाता है, जिसके फलस्वरूप शेष कर्मों की स्थिति घट जाती है। इस प्रकार नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की स्थिति आयु के समान करके मुक्ति की ५०."अवरंजणाणि जीवस्यान्यथाभावकारणानि।" विजयोदयाटीका / भ.आ. / गा.२०९४ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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