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४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३ / प्र०१ तत्तो णवंसगित्थीवेदं हासादिछक्कपुंवेदं। कोधं माणं मायं लोभं च खवेदि सो कमसो॥ २०९१॥ अध लोभसुहुमकिट्टि वेदंतो सुहमसंपरायत्तं। पावदि पावदि य तथा तण्णामं संजमं सुद्धं ॥ २०९२॥ तो सो खीणकसाओ जायदि खीणासु लोभकिट्टीसु। एयत्तवितक्कावीचारं तो ज्झादि सो ज्झाणं॥ २०९३॥ झाणेण य तेण अधक्खादेण य संजमेण घादेदि। सेसा घादिकम्माणि समं अवरंजणाणि तदो॥ २०९४॥ णिहापचला य दुवे दुचरिमसमयम्मि तस्स खीयंति। सेसाणि घादिकम्माणि चरिमसमयम्मि खीयंति॥ २०९६॥ तत्तो णंतरसमए उप्पजदि सव्वपजयणिबंधं। केवलणाणं सुद्धं तध केवलदसणं चेव॥ २०९७॥
अनुवाद "अधःप्रवृत्तकरण द्वारा क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर साधु अपूर्वकरण करता है। उसे अपूर्वकरण इसलिए कहते हैं कि उस साधु ने इस प्रकार के परिणाम कभी भी नीचे के गुणस्थानों में प्राप्त नहीं किये थे।" (२०८७)।
"तत्पश्चात् वह साधु अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थान को प्राप्त कर निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकगति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, आतप, उद्योत, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति और तिर्यग्गति, इन सोलह कर्मप्रकृतियों का क्षय करके मध्य की आठ कषायों (अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ) का क्षय करता है।" (२०८८-२०९०)। ___ "फिर उसी नवम गुणस्थान में क्रमश: नपंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद और संज्वलन-क्रोध-मान-माया का क्षय करता है। अन्त में संज्वलन-लोभ का क्षय करता है।" (२०९१)।
(क्षय का क्रम इस प्रकार है-पहले नपुंसकवेद और स्त्रीवेद का क्रमशः नाश करता है, फिर हास्यादि छह नोकषायों को पुरुषवेद में क्षेपण करके नष्ट करता है। पुरुषवेद को क्रोध-संज्वलन में, क्रोध-संज्वलन को मान-संज्वलन में, मान-संज्वलन को माया-संज्वलन में और माया-संज्वलन को लोभ-संज्वलन में क्षेपण करके क्षीण करता है। अंत में बादरकृष्टि के द्वारा लोभ-संज्वलन को कृश करता है, जिससे सूक्ष्म लोभ-संज्वलन कषाय शेष रहती है। स.सि./१०/१)।
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