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२८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६ / प्र०१ ममत्व को भी मूर्छा बतलाते हैं। (स.सि./७/१७/६९५/२७४) आचार्य 'अमृतचन्द्र ने भी ममत्वपरिणाम को मूर्छा कहा है-"ममत्वपरिणामलक्षणाया मूर्छायाः।" (त.दी./ प्र.सा. ३/२१)।
मूर्छा के इन विभिन्न अर्थों के आधार पर हम संक्षेप में यह कह सकते हैं कि परद्रव्य को पाने की इच्छा, उसके संरक्षण की चिन्ता, उसे सजाने-सँवारने की लालसा उसे संचित करने और बढ़ाने की तृष्णा तथा उसके साथ अपनेपन का भाव (ममत्व) रखना मूर्छा कहलाता है।
____ अभिप्राय यह कि परद्रव्य के प्रति केवल ममत्व होने का नाम मूर्छा नहीं है, अपितु उपर्युक्त सभी भाव मूर्छा की परिभाषा में गर्भित हैं। इसलिए तत्त्वार्थसूत्रकार को भी 'मूर्छा परिग्रहः' सूत्र में मूर्छा शब्द का उपर्युक्त सभी भावों से समन्वित अर्थ अभिप्रेत है। मुख्यतः परद्रव्य की इच्छा का नाम मूर्छा है। अतः ‘मुनि की दृष्टि से किन पदार्थों को पाने की इच्छा मूर्छा की परिभाषा में गर्भित है, इसे तत्त्वार्थसूत्रकार ने नाग्न्यपरीषहजय, शीतोष्णदंशमशकादि-परीषहजय तथा क्षुधातृषा-रोगपरीषहजय इन मुनिगुणों के उल्लेख द्वारा स्पष्ट कर दिया है। अर्थात् जो वस्तु इन परीषहों को जीतने की बजाय इनसे बचने में सहायक हो, उसे पाने की इच्छा मुनि की अपेक्षा मूर्छा की परिभाषा में आती है। इससे स्पष्ट होता है कि वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपुञ्छन आहार, जल, औषधि आदि पदार्थों का उपयोग तथा उनकी याचना उपर्युक्त विविध परीषहों से बचने में सहायक है, अतः मुनि के मन में इन पदार्थों की इच्छा होना मूर्छा है। इतना भेद है कि उचित समय पर, उचित विधि से, उचित आहारजल
औषधि प्राप्त न होने पर जो क्षुधादि की पीड़ा होती है, उसे क्षुधादिपरीषह कहते हैं। उसे समभाव से सहना क्षुधातृषारोग-परीषहजय है। उसे सहन न कर आहारादि
की इच्छा करना मूर्छा का लक्षण है। किन्तु ज्ञान-संयम-ध्यान की सिद्धि के लिए जिस काल में आहारादि ग्रहण करने की शास्त्राज्ञा है, उस काल में होनेवाली क्षुधादि
की पीड़ा परीषह नहीं कहलाती। इसीलिए उसे जीतने का उपदेश नहीं है, अपितु निवारण का उपदेश है। अतः उसके निवारण हेतु जो आहारादि की इच्छा होती है, वह मूर्छा की श्रेणी में नहीं आती। इसी प्रकार संयम के साधन होने से पिच्छीकमण्डलु ग्रहण करने की भी शास्त्राज्ञा है, अतः उनकी इच्छा भी मूर्छा नहीं है। किन्तु नाग्न्यपरीषह और शीतोष्णदंशमशकादि-परीषहों को जीतने का उपदेश है। इससे सिद्ध है कि मुनि को वस्त्रपात्रादि ग्रहण करने की शास्त्राज्ञा नहीं है, अतः उनके ग्रहण की इच्छा मूर्छा है।
इस प्रकार जिस मूर्छा में वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि को धारण करने तथा उन्हें माँगने की इच्छा समाविष्ट है, उसे परिग्रह का लक्षण तथा उसके पूर्ण परित्याग को
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