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________________ अ० १४ / प्र० १ १.१. सचेलत्व की मुक्ति - विरोधिता के अनेक हेतु अपराजितसूरि ने श्वेताम्बरमत में मान्य सचेल मुनिलिंग को मोक्षविरोधी बतलाया है। उन्होंने अचेलत्व के गुणों का वर्णन करते हुए श्वेताम्बर साधुओं के सचेललिंगगत दोषों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। इस प्रसंग में उन्होंने श्वेताम्बर साधुओं द्वारा गृहीत चौदह प्रकार की उपधि (परिग्रह) का उल्लेख किया है और तन्निमित्तक दोषों पर प्रकाश डाला है। श्वेताम्बर - आगमों के वचन उद्धृत कर उन दोषों की पुष्टि भी की है। अपराजित सूरि ने अचेलता के मोक्षसाधक गुणों और सचेलत्व के मोक्षबाधक दोषों का जितना सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषण विस्तार से किया है, उतना किसी भी प्राचीन या अर्वाचीन दिगम्बराचार्य ने नहीं किया। उसका दिग्दर्शन यहाँ कराया जा रहा है। अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / ११९ १.१.१. दशधर्मपालन में बाधक - अचेलत्व दशधर्मों की प्रवृत्ति का साधक है और सचेलत्व बाधक, इसका निरूपण करते हुए अपराजितसूरि लिखते हैं- "चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकलपरिग्रहत्याग आचेलक्यमित्युच्यते । दशविधे धर्मे त्यागो नाम धर्मः । त्यागश्च सर्वसङ्गविरतिरचेलतापि सैव । तेनाचेलो यतिस्त्यागाख्ये धर्मे प्रवृत्तो भवति । अकिञ्चनाख्येऽपि धर्मे समुद्यतो भवति निष्परिग्रहः । परिग्रहार्था ह्यारम्भप्रवृत्तिर्निष्परिग्रहस्यासत्यारम्भे कुतोऽसंयमः । तथा सत्येऽपि धर्मे समवस्थितो भवति । परं परिग्रहनिमित्तं व्यलीकं वदति। असति बाह्ये क्षेत्रादिके अभ्यन्तरे च रागादिके परिग्रहे न निमित्तमस्त्यनृताभिधानस्य । ततो ब्रुवन्नेवमचेलः सत्यमेव ब्रवीति । लाघवं चाचेलस्य भवति । अदत्तविरतिरपि सम्पूर्णा भवति । परिग्रहाभिलाषे सति अदत्तादाने प्रवर्तते नान्यथेति । अपि च रागादिके त्यक्ते भावविशुद्धिमयं ब्रह्मचर्यमपि विशुद्धतमं भवति । सङ्गनिमित्तो हि क्रोधस्तदभावे चोत्तमा क्षमा व्यवतिष्ठते । सुरूपोऽहमाढ्य इत्यादिको दर्पस्त्यक्तो भवति अचेलेनेति मार्दवमपि तत्र सन्निहितम्। 'अजिह्मभावस्य स्फुटमात्मीयं भावमादर्शयतोऽचेलस्यार्जवता च भवति मायाया मूलस्य परिग्रहस्य त्यागात् । चेलादिपरिग्रह- परित्यागपरो यस्मात् विरागभावमुपगतः शब्दादिविषयेष्वसक्तो भवति । ततो विमुक्तेश्च शीतोष्णदंशमशकादिपरिश्रमाणामुरोदानात् निश्चेलता-मभ्युपगच्छता तपोऽपि घोरमनुष्ठितं भवति । एवमचेलत्वोपदेशेन दशविधधर्माख्यानं कृतं भवति संक्षेपेण ।" (वि.टी./गा.' आचेलक्कु' ४२३ / पृ. ३२० - ३२१)। अनुवाद "चेल (वस्त्र) का ग्रहण परिग्रह का उपलक्षण है, इसलिए समस्त परिग्रह के त्याग को आचेलक्य कहते हैं। दस प्रकार के धर्मों में एक त्यागधर्म है। त्याग का अर्थ है समस्त परिग्रह से विरति । अचेलता भी वही है। अतः अचेल यति त्याग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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