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________________ [आठ] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ १.५. टीका में श्वेताम्बरमान्य सचेललिंग के दोषों का निरूपण १.६. टीका में अचेललिंग से ही मोक्ष का प्रतिपादन १.७. श्वेताम्बरीय मान्यताओं के आगमानुकूल होने का खण्डन - विवेचन का सार २. स्त्रीमुक्तिनिषेध २.१. वस्त्रत्याग के बिना संयतगुणस्थान संभव नहीं २.२. वस्त्रत्याग से ही अपवादलिंगधारी की शुद्धि २.३. पुरुषशरीर ही संयम का हेतु २.४. किसी भी स्त्री के मुक्त होने का कथन नहीं ३. गृहिलिंग-परलिंग-मुक्तिनिषेध ४. केवलिभुक्ति-निषेध ५. परिग्रह की परिभाषा यापनीयमत-विरुद्ध ५.१. बाह्यपरिग्रह भी परिग्रह ५.२. परिग्रहग्रहण देहसुख के लिए ५.३. बाह्यपरिग्रह देहासक्ति का सूचक ५.४. बाह्यपरिग्रह मूर्छा का निमित्त ५.५. तीव्र कषाय से ही परिग्रह का ग्रहण ५.६. परिग्रह से रागद्वेष की उदीरणा ५.७. परिग्रही में लेश्या की विशुद्धि असम्भव ५.८. वस्त्रादिपरिग्रह से हिंसा ५.९. परिग्रह स्वाध्याय में बाधक ५.१०. परिग्रहत्याग से रागद्वेष का त्याग ५.११. परिग्रहत्याग परीषहजय का उपाय ५.१२. परिग्रहत्याग से ध्यान-अध्ययन निर्विघ्न ५.१३. मूर्छा, राग, इच्छा, ममत्व एकार्थक ५.१४. अपरिग्रह-महाव्रत की वैकल्पिक परिभाषा नहीं ६. वेदत्रय एवं वेदवैषम्य की स्वीकृति ७. मायाचार के परिणाम के विषय में मतभेद ८. गुणस्थानानुसार कर्मक्षय का निरूपण ९. मूलगुणों और उत्तरगुणों का विधान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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