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________________ अ०१६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २७९ की समानता के कारण चारों गुणस्थानों को समान मानकर चारों में सभी परीषहों का कथन कर दिया गया है। किन्तु तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में 'बादरसम्पराय' शब्द से केवल नौवाँ गुणस्थान अर्थ ही ग्रहण किया गया है। भाष्यकार उमास्वाति ने लिखा है-"बादरसम्परायसंयते सर्वे द्वाविंशतिरपि परीषहाः सम्भवन्ति" (त.भाष्य ९/१२) और सिद्धसेनगणी ने बादरसम्परायसंयत को उपशमक और क्षपक कहकर५° स्पष्ट कर दिया है कि भाष्यकार का अभिप्राय नौवें गुणस्थान से ही है। पं० सुखलाल संघवी ने भी बादरसम्पराय शब्द के अर्थ के विषय में दिगम्बर-श्वेताम्बर-मान्यता भेद पर प्रकाश डालते हुए कहा है-"दिगम्बर-व्याख्याग्रन्थ यहाँ 'बादरसम्पराय' शब्द को संज्ञा न मानकर विशेषण मानते हैं, जिस पर से वे छठे आदि चार गुणस्थान का अर्थ घटित करते हैं (त.सू./वि. स./९/८-१७/पा.टि.२/ पृ. २१६)। किन्तु 'बादरसाम्पराय' शब्द से केवल नौवाँ गुणस्थान अर्थ लेना उचित नहीं है, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्रकार ने छठे, सातवें और आठवें गुणस्थानों में संभाव्य परीषहों का कथन भी 'बादरसाम्पराये सर्वे' सूत्र में गर्भित किया है। अतः उनके अनुसार 'बादरसाम्पराय' शब्द इन चारों गुणस्थानों का सूचक है। और उन्होंने इन गुणस्थानों में सभी परीषहों का अर्थात् नाग्न्यपरीषह का भी कथन किया हैं, इससे फलित होता है किं स्त्री छठे से लेकर नौवें तक किसी भी गुणस्थान में नहीं पहुँच सकती, क्योंकि उसके लिए वस्त्रत्याग असंभव होने से नाग्न्यपरीषह नहीं हो सकता। यह इस बात का सूचक है कि तत्त्वार्थसूत्रकार को स्त्रीमुक्ति मान्य नहीं है। २. तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' (त.सू./९/३७) सूत्र द्वारा भी स्त्रीमुक्ति का निषेध किया है, क्योंकि सूत्र में कहा गया है कि चार प्रकार के शुक्लध्यानों में से आदि के दो ध्यान पृथक्त्ववितर्कवीचार और एकत्ववितर्कावीचार पूर्वविद् (चतुर्दशपूर्वो के ज्ञाता अर्थात् श्रुतकेवली) को होते हैं। ५१ और दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के अनुसार स्त्री को ग्यारह अंगों का ही ज्ञान हो सकता है, चतुर्दश पूर्वो का नहीं, भले ही वह आर्यिका हो।५२ फलस्वरूप उसे आदि के दो शुक्लध्यान नहीं हो सकते। इससे केवलज्ञान होना असम्भव है। ५०. "बादरः स्थूलः सम्परायः कषायस्तदुदयो यस्यासौ बादरसम्परायः सम्मतः। स च मोहप्रकृती: कश्चिदुपशमयतीत्यपशमकः। कश्चित् क्षपयतीति क्षपकः। तत्र सर्वेषां द्वाविंशतेरपि क्षुधादीनां परीषहाणामदर्शनान्तानां सम्भवः।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति /९/१२/ पृ. २३० । ५१. "आद्ये शुक्ले ध्याने पृथक्त्ववितर्कैकत्ववितर्के पूर्वविदो भवतः।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य /९/३९ । ५२. अरहंतचक्किकेसवबलसंभिन्ने य चारणे पुव्वा। गणहरपुलायआहारगं च न हु भवियमहिलाणं॥ १५०६॥ प्रवचनसारोद्धार। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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