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________________ ६८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० २१ / प्र० १ यहाँ छठे से चौदहवें गुणस्थान तक के जीवों को बाह्यवेश की अपेक्षा निर्ग्रन्थ (नग्न) कहकर स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया है, क्योंकि स्त्री के नग्न न हो सकने के कारण छठवाँ गुणस्थान संभव नहीं है। हरिवंशपुराण में यह भी बतलाया गया है कि श्रावक-श्राविका अच्युत नामक सोलहवें स्वर्ग तक ही जाते हैं, उससे ऊपर जिनलिङ्गधारी साधुओं का ही गमन होता है । अभव्यों की उत्पत्ति नौवें ग्रैवेयक तक भी हो सकती है, किन्तु यह निर्ग्रन्थलिंग और उग्रतप से ही संभव है कल्पानच्युतपर्यन्तान् सौधर्मप्रभृतीन् पुनः । व्रजन्ति श्रावकास्तेभ्यः श्रमणाः परतोऽपि च ॥ ६ / १०५ ॥ उपपादोऽस्त्यभव्यानामग्र ग्रैवेयकेष्वपि । स च निर्ग्रन्थलिङ्गेन सङ्गतोऽग्रतपः श्रिया ॥ ६ / १०६ ॥ यह स्त्रीमुक्तिनिषेध का हरिवंशपुराण में दूसरा प्रमाण है। आगे कहा गया है कि भाववेद की अपेक्षा तीनों वेदों से मुक्ति होती है, किन्तु द्रव्यवेद की अपेक्षा केवल पुंल्लिङ्ग से ही होती है । यथा सिद्धिः सिद्धिगतौ अवेदत्वेन - लिङ्गेन Jain Education International ज्ञेया सुमनुष्यगतौ यथा । भावतस्तु त्रिवेदतः ॥ ६४ / ९३ ॥ न द्रव्याद् द्रव्यतः सिद्धिः पुंल्लिङ्गेनैव निश्चिता । निर्ग्रन्थेन च लिङ्गेन सग्रन्थेनाथवा न वा ॥ ६४ / ९४ ॥ अनुवाद - "गति - अनुयोग से विचार करने पर सिद्धगति या मनुष्यगति में सिद्धि होती है। लिंग-अनुयोग विचार करने पर प्रत्युत्पन्नग्राही नय की अपेक्षा अवेद से सिद्धि प्राप्त होती है और भूतार्थग्राही नय की अपेक्षा भाववेदतः तीनों भाववेदों से सिद्धि संभव है ।" (६४/९३)। " किन्तु द्रव्यवेद की अपेक्षा तीनों द्रव्यवेदों से सिद्धि संभव नहीं है । द्रव्यवेद की अपेक्षा केवल पुंल्लिङ्ग से ही सिद्धि हो सकती है। लिंग का अर्थ वेष भी है। अतः उसकी अपेक्षा विचार करने पर प्रत्युत्पन्नग्राही नय की अपेक्षा निर्ग्रन्थलिंग से ही सिद्धि होती है और भूतार्थग्राही नय की अपेक्षा सग्रन्थलिंग से सिद्धि होती है। अथवा सग्रन्थलिंग से सिद्धि होती ही नहीं है।" (६४ / ९४)। यहाँ तो 'द्रव्य की अपेक्षा पुंल्लिंग से ही सिद्धि होती है,' कहकर एकदम स्पष्ट शब्दों में स्त्रीमुक्ति का निषेध कर दिया गया है। कृष्ण की दूसरी पट्टरानी रुक्मिणी के विषय में भविष्यवाणी करते हुए भगवान् नेमिनाथ कहते हैं - " तुम इस उत्तम पर्याय में दीक्षा धारण कर उत्तम देव होगी और For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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