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०१७ / प्र०२
तिलोयपण्णत्ती / ४५९ शती ई०) के साथ भी यति उपाधि प्रयुक्त है। अतः यति शब्द यापनीय आचार्यों की असाधारण उपाधि नहीं थी। इसलिए यह यापनीय होने का लक्षण या हेतु नहीं है, अपितु साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास है। इससे सिद्ध है कि 'यतिवृषभ' नाम में 'यति' शब्द का योग होते हुए भी, वे यापनीय नहीं थे।
स्त्रीमुक्त्यादि-निषेध का अनुल्लेख यापनीयग्रन्थ का लक्षण नहीं यापनीयपक्ष
यतिवृषभ के चूर्णिसूत्रों में स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का निषेध नहीं है, इसलिए पतिवृषभ यापनीय हैं। (जै.ध.या.स./पृ.११५)।
दिगम्बरपक्ष
किसी ग्रन्थ में स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति के निषेध का उल्लेख न होना यापनीयग्रन्थ का लक्षण नहीं है, अपितु इनका प्रतिपादन होना यापनीयग्रन्थ का लक्षण है। कुन्दकुन्द के समयसार में स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति के निषेध का कोई प्रकरण नहीं है, फिर भी वह यापनीयग्रन्थ नहीं है। अतः स्त्रीमुक्ति आदि के निषेध का उल्लेख न होने का धर्म दिगम्बरग्रन्थों में भी उपलब्ध होने से वह यापनीयग्रन्थ होने का हेतु (लक्षण) नहीं है, अपितु साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास (अहेतु) है। इससे सिद्ध है कि स्त्रीमुक्ति आदि के निषेध का उल्लेख न होने पर भी यतिवृषभ के चूर्णिसूत्र यापनीयकृति नहीं हैं।
न शिवार्य यापनीय थे, न यतिवृषभ पापनीयपक्ष
शिवार्य ने भगवती-आराधना में यतिवृषभ का उल्लेख गणी शब्द से२८ तथा अपराजितसूरि ने विजयोदयाटीका में यतिवृषभ नाम से किया है। ये दोनों यापनीय 4, इसलिए इनके द्वारा उल्लिखित होने से यतिवृषभ भी यापनीय थे। (जै.ध.या.स./ पृ. ११५)।
२८. अहिमारएण णिवदिम्मि मारिदे गहिदसमणलिंगेण।
उट्ठाहपसमणत्थं सत्थग्गहणं अकासि गणी॥ २०६९ ॥ भगवती-आराधना।
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