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________________ अ० १६ / प्र० ४ तत्त्वार्थसूत्र / ३९३ १४. श्रुतमनिन्द्रियस्य । त. सू. / २ / २१ ( नन्दिसूत्र / सूत्र २४ पर आधारित ) । १५. संज्ञिनः समनस्काः । त. सू. / २ / २४ ( नन्दिसूत्र / सूत्र ४० पर आधारित) । १६. द्रव्याणि। त.सू./५/२ (अनुयोगद्वार, सूत्र १४१ पर आधारित ) । १७. भेदसङ्घाताभ्यां चाक्षुषः । त. सू. / ५ / २८ (अनुयोगद्वार / दर्शनगुणप्रमाण/सू. १४४ पर आधारित) । १८. कालश्च। त.सू./ ५ / ३९ ( अनुयोगद्वार / द्रव्यगुणपर्यायनाम / सूत्र १२४ पर आधारित) । इन सूत्रों की आधारभूत सामग्री नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वारसूत्र में ही है, अन्य किसी श्वेताम्बर-आगम में नहीं है । श्वेताम्बर मुनि श्री सागरानन्दसूरीश्वर जी महाराज ने तत्त्वार्थकर्तृतन्मतनिर्णय याने तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता श्वेताम्बर या दिगम्बर ? नामक ग्रन्थ लिखा है, जो विक्रम संवत् १९९३ (१९३६ ई०) में श्री ऋषभदेव जी केशरीमल जी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम से प्रकाशित हुआ था । इसमें मुनिश्री ने विस्तार से यह बतलाया है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने तत्त्वार्थसूत्र में कौन सी विषयसामग्री किस आगम से ग्रहण की है। वे लिखते हैं 66 'श्रीमान् ( उमास्वाति जी) के द्वारा इस शास्त्र में कही हुई बातें सूत्रों में स्पष्ट उपलब्ध थीं और अभी भी उपलब्ध हैं। देखिए, सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग के लिए नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुन्ति चरणगुणा । चरणाहिंतो मोक्खो मोक्खे सोक्खं अणाबाहो ॥ (उत्तराध्ययनसूत्र / २८ / ३०)। " इसी तरह से पण्णवणा जी और उत्तराध्ययन में निसर्गाधिगम सम्यक्त्व का ब्यान (वर्णन) पद १ और उत्तराध्ययन की गाथाओं में है । सत्संख्याक्षेत्रादि के लिए संतपयपरूवणा अनुयोगद्वारों में, ज्ञान का सारा अधिकार नन्दीसूत्र में, नय का अधिकार अनुयोगद्वार में, भावों का अधिकार अनुयोगद्वारों में, जीवों के भेद जीवाभिगम और पण्णवणा में, शरीर का अधिकार प्रज्ञापना में और अनुयोगद्वार में, नरक का अधिकार जीवाभिगम, भगवती जी आदि में, भरतादि क्षेत्रों के लिए जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, शेष समस्त द्वीप- समुद्रों के लिए भगवती जी और अनुयोगद्वार और जीवाभिगम, देवताओं का अधिकार स्थानांग, समवायांग, भगवती, प्रज्ञापना, जीवाभिगमादि, काल और सूर्यचन्द्रादि-भ्रमण के लिए स्थानांग, भगवती, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि, देवताओं की स्थिति के लिए प्रज्ञापना का स्थितपद आदि, धर्मास्तिकायादि द्रव्यों के लिए अनुयोगद्वार, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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