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________________ चतुर्विंश अध्याय छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी ___ इनके दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक डॉ० सागरमल जी जैन ने उपर्युक्त तीन ग्रन्थों को भी यापनीयाचार्यकृत घोषित किया है, किन्तु वे दिगम्बराचार्यों के द्वारा ही प्रणीत हैं, यह निम्नलिखित प्रमाणों से सिद्ध है छेदपिण्ड मुनि के दिगम्बरमान्य अट्ठाईस मूलगुणों का विधान उक्त यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखक ने स्वयं स्वीकार किया है कि "छेदपिण्ड अथवा छेदपिण्ड-प्रायश्चित्त ग्रन्थ मूलतः शौरसेनी प्राकृत में है और उसमें मूलतः आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय (आलोचना और प्रतिक्रमण), विवेक, व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग), तप, छेद, मूल, परिहार एवं पारंचिक, इन दस प्रकार के प्रायश्चित्तों का और उन प्रायश्चित्तों से सम्बन्धित अपराधों का अर्थात् पञ्चमहाव्रत, रात्रिभोजननिषेध, पञ्चसमियाँ, पाँच इन्द्रियों का निरोध, केशलोच, षडावश्यक, आचेल्य (नग्नता), अस्नान, अदन्तधावन, भूमिशयन, स्थितिभोजन, एकसमयभोजन, इन अट्ठाईस मूलगुणों और उनके उत्तरगुणों के उल्लंघनसम्बन्धी दोषों का विस्तृत विवेचन है।" (जै.ध.या.स./पृ.१४३)। मुनि के लिए इन २८ मूलगुणों के विधान से ही सिद्ध है कि 'छेदपिण्ड' ग्रन्थ असन्दिग्धरूप से दिगम्बराचार्य की कृति है, क्योंकि यापनीय-परम्परा में आचेलक्य (नग्नता) मुनियों का मूलगुण (आधारभूत या अनिवार्य गुण) नहीं माना गया है, उसके बिना भी इस परम्परा में मुनिपद की प्राप्ति एवं मुक्ति संभव बतलायी गयी है। यापनीय-परम्परा के उपलब्ध ग्रन्थ तीन ही हैं : स्त्रीनिर्वाणप्रकरण, केवलिभुक्तिप्रकरण और शाकटायन-व्याकरण। इन तीनों के कर्ता पाल्यकीर्ति शाकटायन हैं। इनमें से किसी में भी मुनियों के लिए उपर्युक्त २८ मूलगुणों का विधान नहीं मिलता। अतः वे यापनीयमुनियों के मूलगुण सिद्ध नहीं होते। वस्तुतः जैसा कि 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने बार-बार कहा है, 'यापनीय श्वेताम्बर-आगमों को ही Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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