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________________ ५०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ कारण ही उन्हें श्वेताम्बर समाज में इतना प्राचीन माना जाता है तथा मुनि जिनविजय ने भी जिसका एकबार पक्ष लिया है ३५ उसके उल्लेख में जरूर कुछ भूल हुई है। पं० सुखलाल जी ने भी उस भूल को महसूस किया है, तभी उसमें प्रायः १०० वर्ष की वृद्धि करके उसे विक्रम की छठी शताब्दी का पूर्वार्ध ( वि० सं० ५५०) तक मान लेने की बात अपने इस प्रथम प्रमाण में कही है। डॉ० पी० एल० वैद्य एम० ए० ने न्यायावतार की प्रस्तावना में, इस भूल अथवा गलती का कारण श्रीवीरविक्रमात् के स्थान पर श्रीवीरवत्सरात् पाठान्तर का हो जाना सुझाया है। इस प्रकार के पाठान्तर का हो जाना कोई अस्वाभाविक अथवा असंभाव्य नहीं है, किन्तु सहजसाध्य जान पड़ता है। इस सुझाव के अनुसार यदि शुद्ध पाठ वीरविक्रमात् हो, तो मल्लवादी का समय वि० सं० ८८४ तक पहुँच जाता है और यह समय मल्लवादी के जीवन का प्रायः अन्तिम समय हो सकता है और मल्लवादी को हरिभद्र के प्रायः समकालीन कहना होगा, क्योंकि हरिभद्र ने 'उक्तं च वादिमुख्येन मल्लवादिना' जैसे शब्दों के द्वारा अनेकान्तजयपताका की टीका में मल्लवादी का स्पष्ट उल्लेख किया है। हरिभद्र का समय भी विक्रम की ९वीं शताब्दी के तृतीय-चतुर्थ चरण तक पहुँचता है,३६ क्योंकि वि० सं० ८५७ के लगभग बनी हुई भट्टजयन्त की न्यायमञ्जरी का 'गम्भीरगर्जितारम्भ' नाम का एक पद्य हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय में उद्धृत मिलता है, ऐसा न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जी ने न्यायकुमुदचन्द्र के द्वितीय भाग की प्रस्तावना में उद्घोषित किया है। इसके सिवाय, हरिभद्र ने स्वयं शास्त्रवार्तासमुच्चय के चतुर्थस्तवन में 'एतेनैव प्रतिक्षिप्तं यदुक्तं सूक्ष्मबुद्धिना' इत्यादि वाक्य के द्वारा बौद्धाचार्य शान्तरक्षित के मत का उल्लेख किया है और स्वोपज्ञटीका में सूक्ष्मबुद्धिना का शान्तरक्षितेन अर्थ देकर उसे स्पष्ट किया है। शान्तरक्षित, धर्मोत्तर तथा विनीतदेव के भी प्रायः उत्तरवर्ती हैं और उनका समय राहुलसांकृत्यायन ने वादन्याय के परिशिष्टों में ई० सन् ८४० (वि० स० ८९७) तक बतलाया है। हरिभद्र को उनके समकालीन समझना चाहिये। इससे हरिभद्र का कथन उक्त समय में बाधक नहीं रहता और सब कथनों की सङ्गति ठीक बैठ जाती है।" (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./ पृ.१४९-१५०)। ३५. देखिए, जैन साहित्य संशोधक / भाग २। ३६. ९वीं शताब्दी के द्वितीय चरण तक का समय तो मुनि जिनविजय जी ने भी अपने हरिभद्र के समय-निर्णयवाले लेख में बतलाया है। क्योंकि विक्रमसंवत् ८३५ (शक सं. ७००) में बनी हुई कुवलयमाला में उद्योतनसूरि ने हरिभद्र को न्यायविद्या में अपना गुरु लिखा है। हरिभद्र के समय, संयतजीवन और उनके साहित्यिक कार्यों की विशालता को देखते हुए उनकी आयु का अनुमान सौ वर्ष के लगभग लगाया जा सकता है और वे मल्लवादी के समकालीन होने के साथ-साथ कुवलयमाला की रचना के कितने ही वर्ष बाद तक जीवित रह सकते हैं। (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १५०)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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