SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ उससे विचलित न होना भी नाग्न्यपरीषहजय है। इस नाग्न्यपरीषह तथा शीतोष्णदंशमशकादिपरीषहों की उत्पत्ति सदा नग्न रहने पर ही हो सकती है। शरीर को वस्त्रावृत कर लेने से या केवल जननेद्रिय को आच्छादित कर लेने से नाग्न्य आदि परीषहों की संभावना निरस्त हो जाती है। मनुष्य के वस्त्रधारण का उद्देश्य परीषहों से बचना ही होता है। अतः जो सदा नग्न नहीं रहता, शरीर को वस्त्र से आच्छादित करके रखता है, उसमें परीषहों से बचने की आकांक्षा रहती है। ऐसे व्यक्ति को परीषहजय का अवसर न मिलने से कर्मनिर्जरा की साधना संभव नहीं होती। वह परीषहपीड़ा से बचने की आकांक्षा से अर्थात् देहसुख की आकांक्षा से वस्त्र धारण करता है और देह को सुखमय स्थिति में रखते हुए ध्यान, अध्ययन आदि करता है। ऐसा साधक शरीर के लिए अनुकूल स्थितियों में राग और प्रतिकूल स्थितियों में द्वेष रखने से समभाव को प्राप्त नहीं होता। अतः भावलिंग की प्राप्ति न होने से उसके कर्मों की निर्जरा नहीं होती। ___इसलिए नग्नत्व शारीरिक सुख में राग के अभाव तथा शारीरिक दुःख में द्वेष के अभाव का सूचक है, साथ ही तद्विषयक रागद्वेष से निवृत्ति के अभ्यास का साधक भी है। इसलिए जो नग्नत्व धारण कर शारीरिक सुख-दुःख में समभाव की साधना करता है, उसके ही महाव्रतादि सफल होते हैं और उसे निर्जरा के कारणभूत भावलिंग की प्राप्ति होती है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने नाग्न्यादिपरीषहजय को संवरनिर्जरा के लिए आवश्यक बतलाकर इसी मनौवैज्ञानिक तथ्य की ओर संकेत किया है। __सार यह है कि चूँकि गृहिलिंगी नग्नमुद्रा धारण कर महाव्रतादि की साधना नहीं करता, इसलिए उसको संवर-निर्जरा के हेतुभूत वीतरागभावरूप भावलिंग की प्राप्ति नहीं होती, फलस्वरूप उसे केवलज्ञान या मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता, यह बात तत्त्वार्थसूत्र के उपर्युक्त सूत्रों से सिद्ध होती है। इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि के कर्मों की जितनी निर्जरा होती है, उससे असंख्यातगुणी निर्जरा श्रावक के कर्मों की होती है, उससे भी असंख्यातगुणी निर्जरा महाव्रती के कर्मों की होती है, उससे भी असंख्यातगुणी निर्जरा अनन्तानुबन्धी-वियोजक के कर्मों की होती है। इस क्रम से बढ़ते हुए दर्शनमोहक्षपक, उपशमक (चारित्रमोह का उपशमक), उपशान्तमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन, इनके कर्मों की उत्तरोत्तर असंख्यात-गुणी निर्जरा होती है।२° यहाँ हम देखते हैं कि कर्मनिर्जरा की दृष्टि से श्रावक का स्थान बहुत नीचे है, अर्थात् उसके कर्मों की निर्जरा बहुत २०."सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरतानन्तवियोजक-दर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोह-क्षपक-क्षीणमोह जिनाः क्रमशोऽसङ्ख्येयगुणनिर्जराः।" तत्त्वार्थसूत्र /दि. ९/४५, श्वे.९/४७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy