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________________ २४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ क प्रवचनसार जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं ॥ १/८० ॥ समयसार मूलाचार जो जाणइ समवायं दव्वाण गुणाण पज्जयाणं च ॥ मूलाचार मूलाचार - समयसार समयसार जीवणिबद्धा एए जीवणिबद्धाऽबद्धा मूलाचार मूलाचार - - Jain Education International - - प्रवचनसार जो मोहरागदोसे णिहणदि उवलब्भ जोण्हमुवदेसं । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि - ख अपरिग्गहो अणिच्छो अपरिग्गहा अणिच्छा - ग घ — अरहंतणमोक्कारं भावेण य जो सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि ङ अ० १५ / प्र० २ जीवपरिणामहेदुं कम्मत्तं पुग्गला पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि च सो सुत्तपाहुड पुरिसो वि जो ससुत्तो ण विणासइ सच्चेयणपच्चक्खं णासदि तं सो ५२२ ॥ ॥ २१० ॥ For Personal & Private Use Only ॥ ७८५ ॥ 11 98 11 अचिरेण कालेण ॥ १ / ८८ ॥ ॥ ९॥ करेदि पयदमदी । अचिरेण कालेण ॥ ५०६॥ सुत्तपाहुड सुतं हि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि । सूई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि ॥ ३ ॥ जीवपरिणामदू कम्मत्तण पोग्गला परिणमति । ण दु णाणपरिणदो पुण जीवो कम्मं समादियादि ॥ ९६९ ॥ परिणमति । परिणमइ ॥ ८० ॥ गओ वि संसारे । अदिस्समाणो वि ॥ ४ ॥ www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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