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________________ २८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ करने की सामर्थ्य उपलब्ध हुई। कितनी ही शीलवती स्त्रियों को महानदी का जलप्रवाह भी नहीं डुबा सका, धधकती हुई घोर अग्नि भी नहीं जला सकी तथा सर्प, व्याघ्र आदि भी उनका कुछ नहीं कर सके। कितनी ही स्त्रियाँ सर्वगुणों से सम्पन्न, साधुओं और पुरुषों में श्रेष्ठ, चरमशरीरी पुरुषों को जन्म देनेवाली माताएँ हुई हैं। सब जीव मोह के उदय से कुशील से मलिन होते हैं और मोह का उदय स्त्रीपुरुषों में समानरूप से होता है। अतः पूर्व में जो स्त्रियों के दोषों का वर्णन किया गया है, वह स्त्रीसामान्य की दृष्टि से किया गया है। शीलवती स्त्रियों में उपर्युक्त दोष कैसे हो सकते हैं?" यहाँ ग्रन्थकार ने स्त्रियों में शील और व्रतों के द्वारा यश, सम्मान, तीर्थंकरादि का मातृत्व तथा कुछ अद्भुत शक्तियों को पाने की सामर्थ्य तो बतलायी है, किन्तु किसी स्त्री ने व्रतों के द्वारा मोक्ष भी प्राप्त किया है, ऐसा कथन नहीं किया, जबकि ज्ञातृधर्मकथांग में मल्लि, मरुदेवी आदि अनेक स्त्रियों के मोक्ष प्राप्त करने का कथन है। इससे स्पष्ट है कि भगवती-आराधनाकार स्त्रियों में मोक्षप्राप्ति की सामर्थ्य स्वीकार नहीं करते। अन्यथा एक गाथा इस आशय की जोड़ देने में क्या दिक्कत थी? प्रसंग तो स्त्रीसामर्थ्य के निरूपण का था ही। इस प्रकार भगवती-आराधना का कथन है कि वस्त्रादि परिग्रह के त्याग के बिना संयतगुणस्थान संभव नहीं है, महाव्रत संभव नहीं हैं, मोक्षयोग्य शुद्धि संभव नहीं है तथा पुरुषशरीर के अभाव में संयम की साधना असम्भव है। ये इस बात के सुदृढ़ प्रमाण हैं कि भगवती-आराधना में स्त्रीमुक्ति अमान्य की गयी है। सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने भी लिखा है कि "इस ग्रन्थ में न तो स्त्रीमुक्ति का ही समर्थन है और न केवलिभुक्ति का, प्रत्युत अन्त में स्त्री से भी वस्त्रत्याग कराने की इसमें चर्चा है।" (भगवती-आराधना / शोलापुर / प्रधानसम्पादकीय/ पृ.१)। किन्तु केवल स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का समर्थन न होना इस ग्रन्थ का वैशिष्ट्य नहीं है, अपितु उनका निषेध होना उल्लेखनीय विशेषता है, जो इसके दिगम्बरग्रन्थ होने का अखण्ड्य प्रमाण है। डॉ० सागरमल जी लिखते हैं कि भगवती-आराधना में स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति का उल्लेख नहीं है, क्योंकि "स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति के प्रश्न ही ६-७वीं सदी के पूर्व किसी भी श्वेताम्बर-दिगम्बरग्रन्थ में चर्चित नहीं हैं।" (जै.ध.या.स./पृ.१२३)। यह एक महान् असत्य का प्रचार है। भगवती-आराधना में एकमात्र अचेललिंग से ही मुक्ति का प्रतिपादन, वस्त्रपात्रादि समस्त परिग्रह के त्याग से ही संयतगुणस्थान की प्राप्ति का कथन तथा केवल पुरुषशरीर को ही संयम की साधना के योग्य Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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