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________________ अ० १६ / प्र० ३ जुगवं वट्टइ णाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा । दिणयरपयासा जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ॥ १६०॥ अनुवाद - " जैसे सूर्य के प्रकाश और ताप एक साथ प्रकट होते हैं, वैसे ही केवली भगवान् के दर्शन और ज्ञान एक साथ प्रवृत्त होते हैं । " तत्त्वार्थसूत्र / ३८९ इस प्रकार दिगम्बरग्रन्थों में केवली के दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग के युगपत् होने की बात स्पष्ट शब्दों में स्वीकार की गयी है । अतः तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरग्रन्थ ही है। Jain Education International इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि माननीय पं० नाथूराम जी प्रेमी, पं० सुखलाल जी संघवी एवं डॉ० सागरमल जी ने तत्त्वार्थ के जितने भी सूत्र या सिद्धान्त दिगम्बरपरम्परा के विरुद्ध बतलाये हैं, वे दिगम्बरपरम्परा के विरुद्ध नहीं है, अपितु तत्सम्मत ही हैं। इसलिए तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ है। ❖❖❖ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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