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________________ ७५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ पञ्चमीपुस्तकं दिव्यं पञ्चपुस्तकसंयुतम् । साधुभ्यो दीयते भक्त्या भेषजं च यथोचितम् ॥ ५३५ ॥ आहारदानमादेयं भक्तितोद्व भेषजादिकम् । वस्त्राणि चार्यिकादीनां दातव्यानि मुमुक्षिभिः ॥ ५३६ ॥ इस कथन में स्पष्ट कर दिया गया है कि रोहिणी व्रत की समाप्ति पर साधुओं को पाँच पुस्तकों सहित पञ्चमी पुस्तक तथा भेषज एवं आहारदान देना चाहिए और आर्यिकाओं को वस्त्रदान भी करना चाहिए । इससे सिद्ध है कि यापनीयपक्षी ग्रन्थ लेखक ने यथायोग्य शब्द और उसके उपर्युक्त स्पष्टीकरण पर ध्यान दिये बिना पूर्वोक्त श्लोक से जो यह निष्कर्ष निकाला है कि बृहत्कथाकोष में मुनियों के लिए वस्त्रदान का उल्लेख है, वह सर्वथा गलत है। सवस्त्रमुक्तिनिषेध के अन्य प्रमाण बृहत्कथाकोश में सवस्त्रमुक्तिनिषेध के प्रचुर प्रमाण उपलब्ध हैं। उन्हें नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है। Jain Education International १. बृहत्कथाकोश में राजकुल और श्रेष्ठिकुल के पुरुषों को भी दैगम्बरी दीक्षा ही ग्रहण करते हुए वर्णित किया गया है। यापनीयमत के समान उच्चकुल के पुरुषों के लिए आपवादिक सवस्त्रलिंग का विधान उसमें कहीं भी नहीं मिलता। उदाहरणार्थ, नागपुर के नाग नामक राजा का पुत्र सोमदत्त दैगम्बरी मुनिदीक्षा ग्रहण कर लेता है । पश्चात् उसका पुत्र वैरकुमार भी उनसे दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर मुनि बन जाता है। इसका वर्णन वैरकुमारकथानक (क्र. १२) के निम्नलिखित श्लोकों में किया गया है अ० २३ अत्रान्तरे स्तुतिं भक्त्या विधाय करकुड्मलम् । तोषी वैरकुमारोऽपि सोमदत्तगुरुं जगौ॥ ७२॥ भगवन् देहि मे दीक्षां संसारार्णवतारिणीम् । आहत्रीं नाकसौख्यस्य मोक्षसौख्यस्य च क्रमात् ॥ ७३ ॥ श्रुत्वा वैरकुमारस्य भव्य सिंहस्य भारतीम्। ददौ दैगम्बरी दीक्षां सोमदत्तगुरुस्तदा ॥ ७४ ॥ नागदत्तमुनि - कथानक (क्र. २७) के अधोगत पद्यों में शूरदत्त राजा के द्वारा दैगम्बरी दीक्षा लिये जाने का कथन है For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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