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________________ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २९१ उपशमक और क्षपक श्रेणियों में आदि के दो शुक्लध्यान बतलाये हैं। (स.सि./९/ ३७)। तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरीय पाठ (९/३७-३९) में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय-गुणस्थान पर्यन्त धर्मध्यान तथा उपशान्तकषाय एवं क्षीणकषाय गुणस्थानों में धर्मध्यान के अतिरिक्त आदि के दो शुक्लध्यान भी क्रमशः बतलाये हैं। अप्रमत्तसंयत (७वाँ), अपूर्वकरण (८ वाँ) अनिवृत्तिकरण (९ वाँ) और सूक्ष्मसाम्पराय (१०वाँ), इन गुणस्थानों का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्तमात्र है७° और धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान का भी उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त ही है। तात्पर्य यह कि इन गुणस्थानों की सम्पूर्ण अवधि में एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान ही होता है। अतः वहाँ यथासंभव असातावेदनीय का उदय रहते हुए भी क्षुधातृषा की पीड़ा उत्पन्न नहीं होती, अन्यथा एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान असंभव है। इस तरह तत्त्वार्थसूत्रकार ने मन्दमोहोदय की अवस्था में असातावेदनीय का उदय रहते हुए भी क्षुधातृषा की पीड़ा का अभाव बतलाया है। अतः जब मोहनीय के मन्दोदय में भी असातावेदनीय और वेदकर्म क्षुधापीड़ा एवं कामपीड़ा उत्पन्न करने में असमर्थ हैं, तब मोहनीय का क्षय हो जाने पर तो इन पीड़ाओं की उत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। तत्त्वार्थसूत्रकार ने कवलाहार के अभाव में केवली के शरीर की स्थिति और वृद्धि के हेतु पर भी प्रकाश डाला है। उन्होंने केवली को क्षुधापीड़ा तथा आहारेच्छा से रहित बतलाते हुए भी "एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः" (त.सू./२/३०)७१ सूत्र के द्वारा आहारक कहा है। औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरों और छह पर्याप्तियों की उत्पत्ति एवं स्थिति के योग्य पुद्गलों के ग्रहण को आहार कहते हैं। इसे जो ग्रहण करता है वह आहारक कहलाता है और ग्रहण न करनेवाला अनाहारक। २ यतः केवली भगवान् क्षुधापीड़ा एवं आहारेच्छा के अभाव में भी आहारक कहे गये हैं, इससे सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार के अनुसार उनका आहार कवलाहार से भिन्न होता है। आगम में आहार पाँच प्रकार के बतलाये गये है-नोकर्माहार, कर्माहार, ७०. षट्खण्डागम/ पु. ४/१,५,१९-२९ / पृ.३५०-३५५ । ७१. विग्रहगति (भवान्तरगमन) के समय एक मोड़वाली गति में जीव एक समय तक, दो मोड़वाली गति में दो समय तक और तीन मोड़वाली गति में तीन समय तक अनाहारक रहता है, शेष समय में आहारक। यहाँ सूत्रकार ने अयोगकेवली को छोड़ कर सभी सशरीर जीवों को आहार ग्रहण करनेवाला कहा है, जिनमें सयोगकेवली भी आ जाते हैं। सयोगकेवली केवल समुद्धात के समय अनाहारक होते हैं, जैसा कि निम्न गाथा में कहा गया है -विग्गहगदिमावण्णा केवलिणो समुग्घदो अजोगी य। सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारया जीवा॥ ६६६ ॥ गोम्मटसार-जीवकाण्ड। ७२. "त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलग्रहणमाहारः। तदभावादनाहारकः।" स.सि./ २/३०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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