SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०१३/प्र०२ भगवती-आराधना / ८९ महावैराग्यसम्पन्नः सामन्तान्तःपुरान्वितः। श्रीधर्मगुरुसामीप्ये दधौ दैगम्बरं तपः॥ २६१॥ ___३. श्वेताम्बरीय कथा में कहा गया है कि मेतार्य मुनि भिक्षा के लिए सीधे स्वर्णकार के यहाँ गये, किन्तु बृहत्कथाकोश के उपर्युक्त कथानक में वर्णन है कि वे मध्याह्नवेला में आहारचर्या के समय घर-घर भ्रमण करते हुए स्वर्णकार के यहाँ पहुँचे और स्वर्णकार ने उनका प्रतिग्रहण (पड़गाहन) किया गृहाद् गृहान्तरं भ्राम्यन् मेदज्जाख्यो महामुनिः। तत्कलाद-गृहं प्राप प्रलम्बितभुजद्वयः॥ २६८॥ दृष्ट्वा स्वगृहमायातं चर्यामार्गेण योगिनम्। मन्दं मध्याह्नवेलायां कलादोऽतिष्ठिपन्मुनिम्॥ २६९॥ आहारचर्या की यह विधि दिगम्बरमतानुकूल है। ४. श्वेताम्बरीय कथा के अनुसार स्वर्णकार ने स्वर्ण के जौ बनाकर रखे थे, जिन्हें क्रौञ्च पक्षी ने आकर चुग लिया। किन्तु बृहत्कथाकोश में बतलाया गया है कि स्वर्णकार पद्मरागादि मणियों से राजा का मुकुट बना रहा था। उसी समय काकतालीयन्याय (दैवयोग) से एक मोर क्रीडा करता हुआ वहाँ आ पहुँचा और जिस समय स्वर्णकार मेतार्य मुनि का पड़गाहन कर भीतर गया, उसी समय मोर ने पद्मरागमणि को निगल लिया। यह दृश्य मुनि देख रहे थे। जब स्वर्णकार बाहर आया, तब उसे वह मणि दिखाई नहीं दिया। उसने मुनि से पूछा कि आपने यहाँ से किसी को मणि ले जाते हुए देखा है? मुनि मौनव्रत धारण किये हुए थे, इसलिए वे कुछ नहीं बोले। तब स्वर्णकार ने क्रोध में आकर मुनि पर यष्टिप्रहार किया। दैवयोग से वह मुनि को न लगकर मोर के गले में लगा, जिससे पद्मरागमणि मोर के गले से निकलकर बाहर टपक पड़ा। (बृ.क.को./हस्तकश्रेष्ठि-कथानक /श्लोक २७०-७७)। ५. श्वेताम्बरकथा में बतलाया गया है कि स्वर्णकार ने मेतार्य मुनि को बहुत कष्ट देकर भीगे चमड़े में कस दिया, जिससे उनका शरीरान्त हो गया और उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। इसके विपरीत बृहत्कथाकोशकार उपर्युक्त कथानक में कहते हैं कि उपसर्ग समाप्त होने पर मेतार्य मुनि आहार ग्रहण किये बिना ही कौशाम्बी नगरी से लगे हुए देवपाद नामक उत्तुंग पर्वत पर चढ़ गये और जीवनपर्यन्त आहारत्याग का नियम लेकर कायोत्सर्ग में स्थित हो गये। इस प्रकार स्थित रहने पर वे क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हुए और पृथक्त्ववितर्क-वीचार शुक्लध्यान ध्याते हुए क्रमशः अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, और क्षीणकषाय गुणस्थानों को प्राप्त हुए। क्षीणकषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान के द्वारा उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। पश्चात् विहार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy