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रत्रमा
हरदो सिरिसहरुवहड़मणहरहा गलरेहाजितवलियाणा देहासापपरिघुलियएण दियउल्लर दारसेवियूट जडागर्किषिणजाणियाधता जोगाउंकारकिमलकारू सखरखासकरति मकर हिरवलति मउलझेतिहटकाद्ववंति। किंबुहिमहसुण्याहो मणिबंधमहाहाटकंकण होकडियनउकयिलवलस्टट किकिणिसरुचवञ्चालश्यक किंसाहानियवहोण्हसिरिलय ब स्याउतसवंडगिरिकमडएसप्पिमियपक्षणार्शमंजारख
यलुमसणजसजावसंतश्सर) संसारमहाजलनिरिक्षर
कोमलसरलगुलिदलकमलामहकिरणापसादयतिमिरमलाम इंबजिपवरपयजयल मडासमणानुजायसहजकरणका लिसिहितावियउ तंतवहखविहिदावियाघ्ना सुरसायरतो
जामाहविनउनसहविरश्यहाण मंदरगिरिराज्ञे मदिफहमशेणं
-घलअप्पाणुराधा दूराठवणिमलियठासासणसुरेहिपडिठि या बंदिहाशिणतणपरिटुलिरकहरकदरणिवणेमुदिउ मिजारदेवटिंकरणका गुरुसँगैको ।
विश्वश्रेष्ठ सुन्दर ऋषभ के सिर पर इन्द्र ने मुकुट क्यों बाँध दिया? गले की रेखा से जोता गया, झुका हुआ अधोमुख आन्दोलित हार के द्वारा हृदय की सेवा की गयी, जो जड़जात (जड़ से उत्पन्न, और जल से उत्पन्न मोती) को कुछ भी अच्छा नहीं लगा।
घत्ता-जो स्वयं सालंकार हैं, देवता उसे अलंकार क्यों पहनाते हैं? मेरे हृदय में भ्रान्ति है कि उन्हें शर्म नहीं है, वे (उनके) रूप को क्यों ढकते हैं? ॥१५॥
यह कहता है कि जो भव्यजीवों की परम्परा के लिए शरणस्वरूप हैं, जो संसाररूपी महासमुद्र से तारनेवाले हैं, जो कोमल स्वरों और अंगुलियों के दल कमलवाले हैं, और (ज्ञानरूपी) सूर्य के प्रसार से तिमिरमल को नष्ट कर देते हैं, मैंने ऐसे जिनवर के चरणयुगल को पा लिया है, मेरा भूषण होना सफल हो गया। बनाये जाते समय मुझे जो आग में तपाया गया मानो विधाता के द्वारा दिखाया गया यही मेरे तप का फल है।
घत्ता-स्नान करानेवाला क्षीरसमुद्र का जल अपने स्वामी का वियोग सहन नहीं करता इसीलिए मन्दराचल से गुह्य वृक्षों के मध्य में अपने को डाल देता है ।।१६।
१६ क्या देवों को बुद्धि नहीं उपजी कि उन्होंने कंकणों का महाघ मणिबन्ध और कटिसूत्र कटितल में बाँध दिया। किंकिणी का स्वर रोमांचित होकर कहता है कि क्या सिंह के नितम्ब में यह शोभा है? लो यही कारण है कि वह पहाड़ की सेवा करता हुआ वहीं रहता है। दोनों चरणों में झन-झन करते हुए नूपुरों का जोड़ा
१७ देवों ने दूर से बहते हुए उसे देखा और अपने सिर से उसे अंगीकार कर लिया। जिन के शरीर से लढका हआ और कठोर गुफाओं में गिरने से दुःखित उसे देवों ने हाथों-हाथ ले लिया। गुरु के साथ कौन गुरु नहीं होता !
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