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राऊंड सिजलधारपरियछाया चरिणख श्रुके केणजाय।
हमास वहा खितुखणंतरेण का संति वुडसलिलविरयणा यर । इकमाई (विकणं सुख।। एकले सोठ ह्रयन णिघेंचिय यावश पढमुमहावश महिलाह हिपन पावंत हिमफ संतान पुरोतिसर महापु पोल
सिजलधारण्ड सुहास जलधारयपरिद नमति उदय से जलधारण्य विडयाई| बहसिजलधार उत्तसो घ॥ ऊं तरहथ दिम्लाविउ तारारकत्र हसविन ॥२॥ आश्सुमहा कारा महाकश्युपयतवि हावामागदपसाहणा संधि ||१२|| का। ताबा पद्दिव ताक्रम तो गतापि हिरमा पदंवर्देतिक वयः सोजन्या
महालच रहा राम सवार हमानि समत्रो ।।। सेलधुरहित ने केनतेज विनासं क्लिष्टाः प्रतोः सेवमा यस्पा चार
सत्यास्पद साजश्री लरतो जात्पनुषमः काले कलीसांना सादे विभाग डगे १२२
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तुम्हारी असिवररूपी जलधारा से कौन-कौन, शत्रुराजारूपी वृक्ष हरियछाय (जिनकी छाया / कान्ति छीन ली गयी है, ऐसे तथा हरी-भरी कान्तिवाले) नहीं हुए। आपकी असिजलधारा से विश्व में किसकी साँस (श्वास और सस्य) नहीं बढ़ी ? आपकी असिरूपी जलधारा से अत्यधिक जलवाला होते हुए भी समुद्र त्रस्त हो उठता है और अपना गर्व छोड़ देता है। आपकी असिरूपी जलधारा से शत्रुओं की अनेक आँखों के अश्रुबिन्दु और अधिक हो गये। तुम्हारी असिरूपी जलधारा से कुल में नित्य ही अशोक मुक्त भोग हो गया।
घत्ता - हे भरत प्रजापति और प्रथम महीपति, पृथ्वीनाथों के द्वारा चाहे जाते, चरणों में प्रणाम करते हुए उनके द्वारा आप वैसे ही सेवित हैं, जैसे कि ताराओं और नक्षत्रों के द्वारा जिन तथा सूर्यचन्द्र सेवित हैं ॥ २० ॥
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुरुष में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का मागध प्रसाधन नाम का बारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ।। १२ ।।
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