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परिवरुसंपादाविनासंदरिसालायवश्रेणसालाणे निष्टि
श्रीपालसेतीविद्या यवंधवसायविलाय राहणास्यिासाविसनाशण एट्याशि
घरसितह असतविपिडाशणि विणुवाहारएहविस्शविणुसिहिणा
लेगयलोग विचिसविलसंशाधना स्वबराहिवरिसनिय विणिएड़ा
वतीयालि जणलालएपरिताविपिए थणजअलेमिवानिवृविमला। नियमणयन्त्रपुदाविय। घर्किदरणविषवग्यिमह लीगयसशिवारमारणसाली/रयाणवमित्रहोपुरउनकश्समलहोदोसायरहोपर्दछ। शमयराश्वान जमयमचा साणिववाणमाकरमताहाहोउकक्टिणिस्त्रमित्र माना। साउँअश्वविलिविपकम्नि ताजावमिदिहंना होउपङवश्मभुविवाहें पछतणचर ध्याठिसेमहोरिसिठसुंरुमारुअवमहो अमुविधकिनिष्हणन छिटा जिहणार रामपुडयेछिटीनियसपणिदावायविरुदतनिसणविखनको अवउंउछाएप्पिण निजणे गड्डमहिनउघल्लडपिउवणा येरावधविध घनिधसतिहिंतणजिसियन
नगर आने पर प्रासाद के ऊपर खेलती हुई कन्या उसे दिखायी। अपने बन्धुओं के शोक में लीन तथा शास्त्र रहनेवाली है, कुत्ती के समान दानमात्र से मित्रता करनेवाली है। "अच्छा अच्छा मैं उत्कण्ठित यहाँ स्थित में लीन उस 'श्रीपाल' ने 'भोगवती' की निन्दा की। यह नारी विषैले दाँतोंवाली नागिन है। यह नारी अशुभ रहता हूँ, जिससे दोनों का मायाभाव देख सकूँ। स्वामी के देखने पर ही मैं जीवित रह सकता हूँ। विवाह कहनेवाली डाइन है। ये बिना आहार की विषूची है, ये बिना ज्वालाओं की आग है।
से मुझे क्या लेना-देना?" ऐसा सोचते हुए उस सुन्दर को जिसने शत्रुभेदन किया है, ऐसे मारुत-वेग के लिए घत्ता-विद्याधर राजा की उस लड़की ने उस दुर्जन में लीन, मन को सन्तप्त करनेवाली, अपने नित्य उसे दिखाया और जिस प्रकार उसने यह भी कहा कि जिस प्रकार उसने उसे नहीं चाहा, और जिस प्रकार सुन्दर अनुपम स्तनयुगल को तथा अपने मन के ढीठपने को उसे दिखाया॥१६॥
उसने नारीजन की निन्दा की। अपनी कन्या की निन्दा की बात से विरुद्ध होकर उस क्रुद्ध विद्याधर राजा ने १७
वह सुनकर कहा कि-उठाकर इस पागल को प्रेतवन में फेंक दो। तब 'दैत्य' ने श्रीपाल का बुढ़िया का यह महिला बिना गुफा की बाघिन है, ये मारनेवाली विषशक्ति है, रात्रि के समान यह मित्र (सूर्य) के रूप बनाया और उस अनुचर ने उसे वहाँ फेंक दिया। सामने नहीं ठहरती, यह श्यामल दोषाकर (चन्द्रमा) के पास पहुँचती है। यह मदिरा के समान नित्य मदमत्त
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