Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 664
________________ मखडाहातामुद्दयपिउघाटिमदिहरापिठलंवियतणकहरुतरुवर दूरनिरुहवडाकणार सवाचाहहिलवमाएतस्पिायवे दिहलविजाइरिएनरसनमाणसेनिमयरहयमलाघा तपरकेविवाहवाणयसमितिषित हिंदका जपएमडचिडवाइयऊलमझायपहचापाबीपालगर्जतग बोसोरिससाइडइसलिटाएलकेणबत्राणिविलिउस फामादिवशवाज हवाहवाश्मयाहिमहारडी तोनिवडहिनिन्वहेहामुना पाकडिया विद्या हकसमसतिलजीतई अहविर्धगश्यलयदोजतमाउन धरानिदेष्या खहिकाचणण सोपवियोमाषणमापणश्चकम्म परमपनारमिधारोकतारहाउबारमिलाकमारवाकिर विजदि पुरवरिसहोमपुर्दिवमलजहियरिएकजितकसाढे सरकमि नउपरधरिणिहिवमणनिरिकमिवनिखासिलोमलेसमनपरनारायललग्न देतपतिवरजाउदिसंतरेमाखण्डपरवडविवाहो केसलारुवखाशकिक मापपणायणी हिकहिज्ञान क्वखवरेपवित्रिकानामापरतियधपदिपलिजलालानाणघालननि वारिमहियवजावियारहों संतानपवहश्यर्णिदिषु तिविनयूरजारहोगेहिडवार ३३ तलवार से खण्डित करो। तब उस मुग्धा ने प्रिय को पहाड़ पर रख दिया। वह भी ककर वृक्ष के नीचे अपना जायेंगी, सम्पूर्ण अंग चकनाचूर हो जायेंगे। राजलक्ष्मी को माननेवाले हे राजा, तुम मुझ चन्द्रमुखी की उपेक्षा शरीर लम्बा करके लेट गया। जिसमें दूर से सूर्य के प्रताप को रोक दिया गया है उस वृक्ष के नीचे हाथों न करो। तुम मुझे चाहो-चाहो, मैं तुम्हें धोखा न दूंगी और इस भयानक जंगल से उद्धार करूँगी। तब वह से लम्बे होते हुए राजा श्रीपाल को उस विद्याधरी ने देखा। मानो कामदेव ने अपनी प्रत्यंचा का सन्धान कर कुमार बोला कि तुम खिन्न क्यों होती हो! परपुरुष को अपना मन देते हुए शर्म नहीं आती। ये अच्छा है लिया हो। कि 'मैं' इस कल्पवृक्ष की डाल पर सूख जाऊँ। परस्त्री का मुख न देखूगा। मेरे अंग चट्टान पर नष्ट हो जायें, घत्ता-यह देखकर कामदेव के बाणों से आहत एक सीमन्तिनी यहाँ पहुँची। कुल-मर्यादा से मुक्त वह पर वे परस्त्री के उरस्थल में न लगेंगे। अच्छा है मेरे दाँतों की पंक्ति नष्ट हो जाये, वह दूसरे की स्त्री के बिम्बाधरों स्पष्ट चापलूसी के शब्दों में बोली-॥८॥ को न काटे। अच्छा है केशभाग नष्ट हो जायें, पर वे दूसरे की प्रेमिकाओं द्वारा न खींचे जायें। अच्छा है इस वक्षस्थल को पक्षी खा जायें, लेकिन दूसरों की स्त्रियों के स्तनों से यह न रगड़ा जाये। हे पुरुष श्रेष्ठ ! दुःख से प्रेरित तुम्हें यहाँ किसने लाकर डाल दिया? हे सुन्दर ! और इसी तरह वृक्ष से घत्ता-निवारण किये हुए भी नेत्र हिलते रहते हैं। हृदय-विकार को प्राप्त होता है। और रात-दिन सन्ताप तुम छोड़ दिये जाओ तो तुम नीचा मुँह किये हुए निश्चय ही गिर पड़ोगे। कसमसाती तुम्हारी हड्डियाँ टूट बढ़ता रहता है। किन्तु दुष्ट प्रेमी की तृप्ति पूरी नहीं होती॥९॥ 645 Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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