________________
युदिव्यजयण गुरुरखंति क्याथियणियमियचितमु लोयणवि जाणंतितेविखललोखणवितो तिमिलिशियन हा किंमईनिष्फलु अशिया जश्म चरु नियाण हो चल तो विवि त्रवित्ति खलडू मरुसेामइड्रमियन विज्ञउपसिवि श्रायामियन गवयम् हणविण गम यरिमररिहरिहरि इंडहिसरुम समुल रडणामसुर वरु मिलि । 3 तेपुत्र इंदे पेसिन म हजया उगवसियर जाप से वियथिय घणथपिय सागव वियरिसुरारिणम हसालनिहाल पवित्र पनिया विवचितविया करुबा लाहयल ससि पाचच वसि कंपा वियदहदिवई चारित्रुनुहोस लवलवहास लघुकि रणधुच्चो सोमग्निवर तंगिणेविप लाइनरपवरु वरुमग्नमिणा शायवित्रिक वरुमग्न मिल्न संसारहरु अदरं वरेणमडकजणवि प्रमुनिवडश्रवश्च इरवि जहिमाखण का विसंचल जूहिकामुक ग्रामुपपत्राला सामोर मिहला जिव्रो ह उत्तत्त्रिकासुर तोवहे। तावंदे विजय राय हो चरित्र गच्च मरु अमरलाय । इतिदेव पसं सइराइजन व वरु केला परा श्याम रीसाइक्षिणचि हलय आसाणेउराणसिलाम यक समय को पता डास्खमंशं तास्रुगिउं मडुखुरडिंडिमहें सर्वेणतेण श्रमहियहं विभिविवि
१९
अपने हृदय में जय ने महान् शान्ति धारण की। सुलोचना भी अपना मन नियमित करके स्थित हो गयी। तब जयकुमार, संसार के भय का हरण करनेवाले तुम्हारे चारित्र्य की प्रशंसा किसके द्वारा नहीं की जाती।। १८ ।। भी दुष्ट लोक नहीं समझ सका। तब उस पुंश्चली की समझ में आया कि मैंने व्यर्थ युद्ध क्यों किया! यदि मन्दराचल अपने स्थान से चलित होता है, तो तुम्हारी (जयकुमार की) चित्तवृत्ति चलित हो सकती है। मैंने तुम्हें जो पीड़ा पहुँचायी है, और विद्या भेजकर कष्ट दिया है, उससे क्रुद्ध मत होना। यह कहकर वह विद्याधरी चली गयी। शत्रुरूपी हरिणी के सिंह उसकी देवों ने पूजा की। मधुर दुन्दुभि स्वर उछल पड़ा। रतिप्रभ नाम का सुरश्रेष्ठ उससे आकर मिला। उसने कहा कि इन्द्र के द्वारा प्रेषित मैंने तुम्हारे पवित्र भाव का अनुसंधान कर लिया। सघन स्तनोंवाली जो तुम्हें रोककर स्थित थी वह विद्याधरी नहीं, अप्सरा थी, जो तुम्हारे शील की परीक्षा करने के लिए भेजी गयी थी। लेकिन तुमने अपने मन में उसे अपनी माता के समान माना। घत्ता - हे कुरुकुलरूपी आकाश के चन्द्र, इन्द्रियों को वश में करनेवाले दसों दिग्गजों को कँपानेवाले है
जो अच्छा लगे वह वर माँग लो। यह सुनकर वह श्रेष्ठ मनुष्य कहता है- " मैं ज्ञान की पवित्रता करनेवाला वर माँगता हूँ। मैं संसार का हरण करनेवाला वर माँगता हूँ। किसी दूसरे वर से मुझे काम नहीं हैं। इन्द्र, चन्द्रमा और सूर्य का पतन होता है। जहाँ सुख कभी भी विचलित नहीं होता, जहाँ काम की ज्वाला प्रज्वलित नहीं होती, जिनवर का घर वह मोक्ष मुझे चाहिए। मैं उसी वर से सन्तुष्टि पा सकता हूँ।'' इस प्रकार जयकुमार राजा के चरित की वन्दना कर वह देव तुरन्त देवलोक चला गया। देवप्रशंसा से शोभित वधू और वर कैलास पर्वत पहुँचे। आकाशतल में अपनी गति क्षीण कर वे रत्नों से निर्मित शिलातल पर स्थित हो गये। तब उन्होंने स्वर्णदण्डों के ताड़न से सक्षम देव-दुन्दुभियों का शब्द सुना उस शब्द से आकर्षित होकर,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org