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धाजयचितामणिमयतस्कर सयरायरलायवलाय संसारमहमवतरणमायरानापर्व व्यापादवियप्पणयामाधारियपलपणापंजावहथावरजगमद खयसायहतासियजावदया। पावहाविवामिलामोहरयासममहतसहयतिमिसयाई पशजणिविणादजससिह तमुणश, पावरपुरुहादह सयलहमपनिवसंश्यामलंगि विडसरतिकिसनगि उजापहितिजयप
विधायगड हदंडमड्डमणिघडियपाउडयरमणमा देवादिदेठ हटकरमिबहारचरणसव श्यर्वविजिए। जिदावरणिविडायणवेविसंलासिउतपासा पङमल्ल हिगछमिकरियसाउत्तमचरणलेमिजामिविमाउ तस्छ। शिविसरायाहिराउलखानुकलेजनहाहिराडामप ऊचाइजश्नहगणवरण तोकिन्नधुरामलगायास
बलणविसरलपणायामाहयनवानहिडधणण हट। अहमियतमरपड जहिमहियासणेवहाधिवा माजाहितवावपञ्चमुलासह वेदादिर उरिटायईि पहिउवासमहालडविजिविसयकसायहिाजिणवर्णवारिधुमेद २३८
हे चिन्तामणि और मदरूपी वृक्ष के लिए गज! आपको जय हो। सचराचर लोक का अवलोकन करनेवाले! आपकी जय हो, संसाररूपी समुद्र के सन्तरण पोत (जहाज)! आपकी जय हो।
पत्ता-हे परमपद ! आपने एकानेक (अद्वैत-क्षणिक आदि विकल्प) के विकल्पवाले नय के न्याय से पर-मत का निवारण किया है, आपने क्षय से भयभीत स्थावर जंगम जीवों के लिए जीवदया का कथन किया है॥६॥
और देवाधिदेव हो। मैं तुम्हारी चरणसेवा करूँगा। इस प्रकार जिन की वन्दना कर, रमणी के विरह को जीतनेवाले भरत को प्रणाम कर उसने उनके साथ सम्भाषण किया-“हे प्रभु, छोड़ दीजिए, में जाता हूँ। प्रसाद करिए, मैं तपश्चरण लूंगा और दुःख का नाश करूँगा?" यह सुनकर राजाधिराज भरत कहता है-"हे जय, लो तुम्ही राज्य ले लो, तुम्हीं राजा हो जाओ। यदि तुम्हें गजपुर पर्याप्त नहीं है, तो धरतीतल तथा रत्नों सहित इस समस्त नवनिधिरूपी बड़ों में संचित धन से भी क्या पूरा न पड़ेगा! मैं अन्त:पुर में प्रवेश करके रहता हूँ। तुम सिंहासन पर बैठकर धरती का भोग करो।
पत्ता-हे सेनाप्रमुख, तुम तपोवन के लिए मत जाओ, शत्रुराजाओं से विजय वृद्धि को प्राप्त तुम-जैसा वीर महासुभट भी (क्या) विषय कषायों से जीता जा सकता है? ॥७॥
मिथ्यामोह और रति को बढ़ानेवाले तीन सौ प्रेसठ मतों को जोतकर, हे स्वामी, आपने जिस तत्त्व की रचना की है उसे ब्रह्मा, विष्णु और शिव नहीं जानते। सभी के मन में श्यामलांगी (सुन्दरी) निवास करती है, वे विट, सप्तभंगी की क्या याद कर सकते हैं । हे वीतराग, आप तीनों लोकों को जानते हैं। तुम परमात्मा
तब जिन- भगवान् के अभिषेक-जल से मन्दराचल को धोनेवाले
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