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कखगघडसमरकरलणपकाख अठंडविअंगपनिवदेन फूलनिवजरहेरंडवागराधाबाई सणणाणा हिवसुसमर्दिसिडयुपहिसपमठाससहावेजाविठहगशतिकणसिहरियणसाग मामासक्यमाणवमणाजरुहहापंचमकहाणघासिदासिविषड़निहियठणाहदेव कलामसिहाणारहमह संसाराचारिसमासुरहरपटिहरईयाशंगायतिदिक्षिणाकामिया पाहिपतिहिफाणसामंतिपाहिघियतिहिंगदकसमंजस्लादिनियतलादयायलादिस हलखयमविलवाणेहि सिंगारहिकलसहिंदण्यपाहिं बादतचित्तथुश्कलयलहिं अवरहिमिणा पामालेहकरवंदाणागसपुरकासलाविरयविखंडविधिविहरूक अचेम्पिपरिसिपुरमसगा
सातदिपिडियअअणंगणास पयपणवंतहितवितिडि वअनिदृष्ट्वमन्डाणलुविमुकुाधताअलक्षणरतपुथा रहरिखसवपरिलवणदासम्म सिहिगसंसारहोता क्यिन जिणकमकमलहोलसाठा मबलिनसमधपणिपसेर वर्णसिहिणामुक्कमलकलकासुपमिलिङगमोजाला कलाप्ठ तपशुखपदेशप्पलाउतिहाईउहाणहरजममा
जितना समय क ख ग घ ङ समाक्षरों के कथन का समय है, उसमें विद्यमान होते हुए भी देव शरीर को वृक्षों को काटकर चिता बनायी गयी; फिर ऋषि परमेश्वर की पूजा कर, कामदेव का नाश करनेवाले उनके नहीं छूते। जिस प्रकार छिलका निकल जाने पर पके हुए एरण्ड का बोज (ऊपर जाता है)।
शरीर को उस पर रख दिया गया। चरणों में प्रणाम करते हुए, अग्नीन्द्र ने मुकुटरूपी अनल से लाल स्फुलिंग पत्ता-उसी प्रकार वे दर्शनज्ञानादि और आठ सिद्धगुणों से सम्पूर्ण होकर। वे अपने (उर्ध्वगमन) स्वभाव छोड़ा। के कारण परमपद में जाकर स्थित हो गये ॥२०॥
घत्ता-मनुष्यत्व नहीं पाने के कारण थर-थर काँपता हुआ, संसार के परिभ्रमण से भग्न एवं संसार से
त्रस्त होकर मानो अग्नि जिनवर के चरण-कमलों से जा लगी॥२१॥ तब देवेन्द्र ने अरहन्त की मानवमनोज्ञ पाँचवें कल्याण की पूजा की। स्वामी के देह को श्वेत शिविका में रखा गया, मानो कैलास शिखर पर अरुण मेघ हो। सैकड़ों भंभा-भेरी, झल्लरि और तूर्य वाद्य देव-वादकों
२२ द्वारा बजा दिये गये। गाती हुई किन्नर स्त्रियों, नाचती हुई नाग स्त्रियों, गिरती हुई कुसुमांजलियों, ऊपर उड़ती मेघ की आशंका उत्पन्न करनेवाला धुआँ उठा, मानो आग ने अपना मल-कलंक छोड़ दिया हो। फिर हुई ध्वजावलियों, फल-अक्षत-धूप और विलेपनों से युक्त भिंगारों, कलशों और दर्पणों, प्रारम्भ की गयी ज्वालासमूह आकाश से जा मिला और उसका शरीर आधे क्षण में वाष्परूप में बदल गया। उस कुण्ड विचित्र स्तुतियों के कल-कल शब्दों और दूसरे नाना मंगलों के साथ कपूर-चन्दन-अगुरु से मिश्रित विभिन्न (चितास्थान) का गणधरों ने यम की दिशा (पूर्व दिशा) से
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