Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 689
________________ पणधापकायहितासहासनचाथिमजाणेचिधममतारा जणासिसयंवरहरदिन्ति। उसानिटमहरणेअक्ककिनि एकसाइमरिसण्णरवारिड समदानपरिहिननमुण्डिस मातमुहिसाछियामहि णायग्नममिरिद्वार दिएकंवरहश्यथाणाकलादि लिहियुक लिमलकंदलाहि जलमलविलिगोदाराहि विनाहरहिटगोरादि सुबलील सलिलसंग इसरादिवियकामटिटरटर्मि प्रासंघिटाबलामदराहिालकातिसिझमधरीहि अजियसखहिकहियाजाई पप्पाससहसूलहियाइतातिशियाईजिलकसावयाद प रिपालियवारहविहवयाहं जीवनचदिनहिंसावशेदि ताईपचजिलकईसावद्विापचा। कागणिकरसस्यरुफणिवावि पणिर्णनुभयोमुनश्यणवतहदेवाहदाणावही मिगहसंखको। शशा अवततनतवप्पायवाणु कूकेलिरहवाहाणिसणु पेलेविसहमंडवेजाअोरुष जवदीवोमशेमेरु छिटासवनमणविणियमपा सकलतविलसियनवसमेणा धकवहि सणीहिवण पारथण्डजवपक्रिवण जयदेवावन्नपविमलमणासजदजिपतिपत्र डामणास जदाजाबलोयधर लजटायुरुतिकरसामिसाल जनकप्परुखमयकाम को हिंसा की आपत्ति नहीं देनेवाली वहाँ पाँच लाख श्राविकाएँ थीं। पत्ता-कागणिकर, बृहस्पति, नागराज भी संख्या गिनते हुए मन में मूर्च्छित हो जाते हैं। उन्हें प्रणाम करते हुए देवों, दानवों और पशुओं की संख्या कौन समझ सकता है !॥५॥ ये देखो तुम्हारे एक हजार भाई हैं जो धर्म का रहस्य जानकर स्थित हैं। जिसने स्वयंवर में सूर्य के समान दीप्तिवाले अर्ककीर्ति को महायुद्ध में रुष्ट किया था, यह वह दुर्मर्षण नरवरेन्द्र समभाव में स्थित मुनीन्द्र हो गया है। सम्यक्यत्व और शुद्धि से शोभित बुद्धिवाली ज्ञान के उद्गम से रति को नष्ट करनेवाली, अपनी स्तनरूपी स्थली को एक वर्ष से आच्छादित करनेवाली, पापमल के अंकुरों को नष्ट करनेवाली, प्रस्वेदमल से विचित्र अंग से गोचरी करनेवाली, पवित्र शीलरूपी जल के संग्रह की नदी, कानन और महीधरों की घाटियों में निवास करनेवाली, ब्राह्मी और सुन्दरी की शरण लेनेवाली, संयम धारण करनेवाली, विद्याधरियों और मनुष्यनियों की संख्या तीन लाख थी। जितनी आर्यिकाओं की संख्या कही गयी है उसमें पचास हजार अधिक और उतने ही लाख-अर्थात् साढ़े तीन लाख बारह प्रकार के व्रतों को धारण करनेवाले श्रावक थे। जीवमात्र अत्यन्त तपे हुए सोने के रंग के समान, अशोकवृक्ष की छाया में विराजमान सभामण्डप में जगत्पिता को देखकर, मानो जम्बूद्वीप के बीच में सुमेरुपर्वत हो, भवभ्रमण से निवृत्ति की इच्छा रखनेवाले उपशमभाव से शोभित अपनी पत्नी के साथ चक्रवर्ती भरत के सेनापति राजा जयकुमार ने स्तुति प्रारम्भ की-"विमल बुद्धि देनेवाले हे देव! आपकी जय हो, त्रिभुवन श्रेष्ठ ! आपकी जय हो, जीवलोक के बन्धु और दयालु ! आपकी जय हो, पुरुतीर्थकर स्वामिश्रेष्ठ ! आपकी जय हो, हे कल्पवृक्ष, हे कामधेनु ! जय हो। Jain Education Interation For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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