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अप्पिसुंदरिएखहद्दिमाग घखिउसकेसखंचविसङ्गाघयूसालयणहिरसियठदेशानुमकपिए यारयलालणारा लण्यठतवचरणुमुलोयापाघिसाघुसियारुणजेथाहारमणि मंडियतेम। लमलयानवाहपङयहिसयघडामपंगतुनिहालियाबागधारिणीरियषत्रियाउचिर। रुवानका परिचन्नियालाविळडियघखावारतनि अपरिसदाधिनजयरायपति तापियवि नयासहितविसकायागतवतारमायाहापुन्नपूडिहिकाश्पड विणुपिउपारको मर दादाई पचनमिवालियाई आणणणायणाश्मालिया संध्याएकाइजयंतियाए पर विनोगतपतियाए श्यसाऊपंतिमुचंतिरिद्धि नियस्यहोर्दिवपरलोयदि मतिहिंविणवारि यदिनकामाश्रियरायसासमादधामेधपारवधूरणिध्वयपलाई श्रदरविसंजायठसंजर उपयारसंगसयक्षारणीयाणाणावरगामविहारिणाय देवाण्याकपपतपुरुहाय राणाक्षस कहतस्कहिडताएाधना गुरुवचिठबसाहरिहिं देवतिलोयालादप अनश्कड़िसराज शरसिदिहासककुसलायण शालवणतयलायमूहिकरण तासायनिमदमतिकरणारा प्पाशवकवलविमलुपाणु जायसजलनिवाणुताप होपवित्रहमिडसलायणाधिसयसावें सावासावसाविमार्णियमिबाणाईरमाईसुद्धखंजविवङ्कसायरसमाई दोदीकपराहणार
आर्यिका सुभद्रा के लिए अर्पित उस सुन्दरी सुलोचना ने स्नेह के साथ अपने केश उखाड़कर फेंक दिये और किया। पति वियोग में तड़पती हुई और जीती हुई मुझसे क्या पाया जाएगा?' इस प्रकार कहती हुई और व्रत तथा शीलगुणों से अपने शरीर को भूषित कर लिया। उन्मुक्त विचार से देखनेवाली सुलोचना ने तपश्चरण अपने पुत्र को परलोक की बुद्धि देती हुई समस्त ऋद्धि छोड़ देती है। परन्तु मन्त्रियों के मना करने पर, ले लिया।
कामनाओं की पूर्ति करनेवाले राज्यशासन के केन्द्र हस्तिनापुर में वह स्थित हो गयी। ब्रतरूपी जल की नदी, पत्ता-केशर से अरुण तथा स्तनहार-मणियों से मण्डित जो स्तन मानो कामदेवरूपी राजा के अभिषेक जयकुमार की वह पत्नी एक दूसरी आर्यिका हो गयी। ग्यारह अंगश्रुतों को धारण करनेवाले तथा नाना पुरों के घट थे, धूल-धूसरित वे अब मल से मैले दिखाई दिये॥१०॥
और ग्रामों में विहार करनेवाली राजा अकम्पन की पुत्री उस देवी ने रत्ना श्राविका को अपना कथान्तर बताया।
घत्ता-ब्राह्मी और सुन्दरी देवियों ने गुरु से पूछा-"त्रिलोक को देखनेवाले हे देव, जयमुनि का अगला
जन्म कहाँ होगा, और सुलोचना कहाँ होगी? ॥११॥ चिरभव में अर्जित गन्धारी, गौरी और प्रज्ञप्ति विद्याएँ उसने छोड़ दीं। गृह-व्यापार की तृप्ति को । छोड़नेवाली जय की पत्नी परिग्रह से हीन होकर स्थित हो गयी। तब प्रिय के वियोग की ज्वाला से सन्तप्तकाय तब भुवनत्रयलोक के लिए कल्याणकर प्रथम तीर्थंकर ने कहा-"जय केवल विमलज्ञान उत्पन्न कर अनन्तवीर की माता पीड़ित हो उठती है-'हे पुत्र, तुमने राजपट्ट क्यों स्वीकार किया ? पिता के बिना राज्य निर्वाणस्थान को प्राप्त करेगा। यह सुलोचना भी, भावाभाव का विचार करनेवाला अच्युतेन्द्र देव होगी। माना में क्या अहंकार ? तुमने पंच इन्द्रियों को पीड़ित नहीं किया। ध्यान के द्वारा अपने नेत्रों को निमीलित नहीं है देवों की रति और लक्ष्मी को जिन में ऐसे अनेक वर्षों तक सुख का भोग कर, यह कनकध्वज राजा होगी, For Private & Personal use only
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