Book Title: Adi Purana
Author(s): Pushpadant, 
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 696
________________ गूणनिवास चुनारिधिवंधविणासह सासनिझियजलजायकेशवलासझायपंचायार विदिणाणपंचविसिह पिग्नथपंचजात्राकशपश्चिदिनविसिहशायणगारागाखर याइपच पंचछिकादासमिदीमपंचोव्यासवनिर्वधडेउविपचालिहालेमहानत्याविच संसारसरा रबहानिपचारुपंचमहगिरिवरवियंच वजावकोयतकालसमय छलिसासाविसममधिमय छदवरतावासविहाउसवविसनसत्राहामहाउपाध्यमुहबहावणखजावरापात वित्रहाणवणारामणवसारधरि पडिसनुविणनिदिइकहारि नविपयनदयधम्यू विज्ञाबबुविददविद्धमुकम्मु दहसावविसरसवतवासिफिणिससिसइदददिगियसुहासि | ण्यारहरुद्दाहसाचारापारविल्सादयविगाव पचिन्नश्शवकावयावारहजिणवलणार विणियार वारहपरिंदपालियांदंग वारदतववाहविदोटोगाधिवातरक्ष्चरिदगरखि या सरहकिरियाणाईचदगुणठाणाराणाईचंठदहमनपठाणशायरहतसिइंता इमाईचदमुहाईपयासियाचिठदहमलवादाचवथा सन्दहकुलबरकममणुदासथा। चउदहरयणईमुणिगदियणाम बउदहादावालिमहागामा पणारहंकमहाविहायागमार हठवणसियपाय सोलहवखणडहदारणाश्सालहाजणजमाहाकारणासजमदडसनदहा | ३३ बन्ध और विनाश के कारण चार हैं। इस प्रकार कामदेव का नाश करनेवाले जिन कहते हैं। के साथ दस दिग्गज शोभित होते हैं । रुद्र ग्यारह हैं, रुद्रभाव भी ग्यारह हैं। गर्वरहित श्रावक भी ग्यारह प्रकार घत्ता-सत् ध्यान पाँच हैं, आचार विधि और श्रेष्ठ ज्ञान भी पाँच हैं, निर्ग्रन्थ मुनि पाँच प्रकार के हैं, के हैं। जिन-वचनों से उत्पन्न पश्चात्ताप और अनुप्रेक्षाएँ बारह । चक्र का पालन करनेवाले चक्रवर्ती बारह। ज्योतिषकुल पाँच हैं, इन्द्रियाँ भी पाँच कही गयी हैं ॥१५॥ बारह प्रकार के तप। और श्रुतांग भी बारह प्रकार का। घत्ता-चारित्र्य के प्रकार तेरह और क्रिया के स्थान भी तेरह कहे गये हैं। गुणस्थानों का आरोहण चौदह मुनि और श्रावक के ब्रत पाँच-पाँच हैं। पाँच अस्तिकाय हैं, समितियाँ पाँच हैं, आश्रव और बन्ध के प्रकार का है, और मार्गण के स्थान भी चौदह हैं ॥१६॥ हेतु पाँच हैं। लब्धियाँ और महानरक पाँच हैं। सांसारिक शरीर पाँच होते हैं: गुरु पाँच होते हैं, सुमेरुपर्वत १७ भी पाँच होते हैं। जीवकाय छह होते हैं। समयकाल छह होते हैं। लेश्याभाव छह होते हैं, सिद्धान्त और मद अरहन्त के द्वारा सिद्धान्त पर आश्रित चौदह पूर्व प्रकाशित किये गये हैं। चौदह मल हैं, चित्तग्रन्थ भी भी छह होते हैं। द्रव्य छह हैं, आवश्यक विधियाँ छह होती हैं। भय सात और पृथ्वियाँ (नरक की) सात चौदह हैं, चौदह कुलकर, जो मानव संस्था का निर्माण करनेवाले हैं । गुणियों के द्वारा जिनका नाम लिया हैं, प्रकृतियाँ आठ हैं, पृथिवियाँ आठ हैं, व्यन्तर देव और जीवगुण भी आठ हैं। नौ नारायण, नौ बलभद्र, जाता है, ऐसे चौदह रत्न बताये गये हैं; भूतग्राम भी चौदह बताये गये हैं। कर्मभूमि का विभाग पन्द्रह है, प्रतिनारायण भी नौ, दु:ख का हरण करनेवाली निधियाँ भी नौ। पदार्थ नौ प्रकार के । दस प्रकार का धर्म। पन्द्रह प्रमादों का भी उपदेश किया गया है। दुःख का नाश करनेवाले सोलह वचन होते हैं, जिन के जन्म सुकर्मा वैयावृत्य भी दस प्रकार का। भवनान्तवासी भावनसुर दस प्रकार के होते हैं, धरणेन्द्र और चन्द्रमा के कारण भी सोलह होते हैं। संयम सत्तरह होते हैं, Jain Education International For Private & Personal use only www.jamalI

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