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वंदेष्पिषु जिणधवल तेलहा सा लुसाल सरल परिहरे विताई उपरिगयई ते हा उपंच जोखणसाश मदन प्रजेविवेश्य वर्णच मुदिसे अकमणिकेश्य3 पुणरदितिसहि सहस और जायाह चडेपिए सुरसिहरि वर्णादिह नामेस उमस करिमणा तरुगलियर पणच विवेदिति अग्रत्रमत्र जिप र पडिमा कित्रिम पुष्णुपंचती ससडसईथर पंचसयाले किय जोय गई लंघे विपंड्य वणपश्सरवि अहि अरुर्दिवं करेवि जोगविचूलियम रुदे तणिख चालीस जिओयू परिगपिन जोश्य उत्तरकुरुदेव कुरु अवलोश्यदहविहरु छविकलपचयचा हाईट दिवस मिलेगा। जनित सगुणगण निरुनिरुदमतण जंबूदान तण अंतरुओइड रणजोयन अंवृद्धी वहाल २५|| तेजाशविद्यायच हायरि जहि ई सहिमि रिविंशसिरि त चल इस मणिमय ऋणिया सो दम्मम सुरिंदविला सिलिय जहिजोम मिश्रकिकमल जैनूणाणिम्रिय विमलदल दिसुरदिविचोभ्यामई। नालुविपविमनदह जोया तवायविणिम्मियणपक्षिय कपियमयपरिहदिय जदिको सयमा पविमाणुतहे ल छीदेविअरविंद संपदिनदयले चखियां दिमिणियमा गंजो लियई गंगासिंधू सिहरनि यदि तदणउपदिमलुजखपिपनि सुरनरडलसेवियम हलहो। चायई वेयहाय हो जय
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दोनों जिनश्रेष्ठ की बन्दना कर, सालवृक्षों से सरल उस भद्रशाल वन का परित्याग कर उनके ऊपर पाँच योजन गये। वहाँ नन्दनवन में चारों दिशाओं में अकृत्रिम चैत्यालयों और चैत्यों की पूजा कर, फिर त्रेसठ हजार योजन ऊपर चढ़कर सुमेरु पर्वत के शिखर पर उन्होंने सौमनस नाम का बन देखा, जिसमें हाथियों के सूँडों से आहत वृक्षों से रस रिस रहा है। वहाँ पर भी जय से भुवनत्रय में उत्तम अकृत्रिम जिनवर प्रतिमाओं को प्रणाम कर फिर पैंतीस हजार पाँच सौ योजन ऊपर मेघों को लाँघकर पाण्डुक वन में प्रवेश कर, अर्हन्त बिम्बों का अभिषेक कर, मेरुपर्वत की चूलिका देखकर, चालीस योजन और जाकर उत्तरकुरु और दक्षिणकुरु के दर्शन किये और दस प्रकार के कल्पवृक्षों को देखा। छहों कुलपर्वत, चौदह नदियाँ और भेदगतिवाली अनेक नदियाँ देखीं।
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धत्ता- जहाँ अपने गुणों और गणों से युक्त लोगों को रंजित करनेवाला अनुपम शरीर जम्बूस्वामी रहता है, ऐसा रत्नों से उद्योतित जम्बूद्वीप का चिह्न जम्बू वृक्ष देखा ।। १५ ।।
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उसे देखकर वे हिमगिरि पर्वत पर आये, जहाँ सखी विन्ध्य श्री देवी हुई थी, शरीर बलित, मणिमय भूषणोंवाली और सौधर्म स्वर्ग की विलासिनी। जहाँ एक योजन का कमल है, जिसके विमल कमलदल स्वर्ण से निर्मित हैं, जिसमें देवों में भी आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला दस योजन का कमल माल है तथा सोने से निर्मित एक गव्यूति प्रमाण नयी कर्णिका है, अरविन्द सरोवर में उस लक्ष्मीदेवी का एक कोश प्रमाण विमान है। उसे देखकर वे लोग आकाशतल पर चले दोनों ही अपने मन में पुलकित थे। गंगा और सिन्धु नदी के शिखरों को देखकर उनका सुगन्धित जल पीकर वे लोग शवरकुल से सेवित मेखलावाले विजयार्ध पर्वत पर आये।
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